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“आकाश दो”
छंद- वाचिक स्रग्विणी विधान- 212 212 212 212 देखकर जो तुम्हें जी लिया है सदा । आचमन यों सुधा का किया है सदा । पंख खोले हवा में यूँ आकाश दो, स्वाँस गाये जहाँ बन प्रिया है सदा । प्रीत निर्मल बिखेरे कली से सुमन, अलि मगन सोम रस में जिया है सदा । वर्तिका के बिना दीप जलता नहीं, पर कहें जल रहा यों दिया है सदा । वात कंपित शिखा वत न बुझना मुझे, ये हवायें जलातीं हिया है सदा । प्रीति मीरा बनी जो अमर हो गयी, प्रेम जिसने गरल ही पिया है सदा । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी