• गीतिका

    संदेश

    आधार छंद – सुमेरु मापनी 1222 1222 122 गीतिका —— धरा को पाप का संगम बनाया । अरे ! मानव न तू अब भी लजाया । रही यह राम की धरती जहाँ पर, अनैतिक कर्म को प्रतिदिन बढ़ाया । मधुर बंसी न मोहन अब सुनाते , नहीं घनश्याम जैसा मित्र पाया । विधर्मी कर रहे जीवन भयावह, कहाँ हो शिव गरल जिसमें समाया । विकल वसुधा लगी है आग चहुँ दिक, तुम्हारा आगमन सावन सुहाया । रहा अवशेष जो उसको बचा लो, सदा से स्नेह ने दीपक जलाना । बहाओ प्रेम की गंगा तनिक तुम, मिलेगा पुण्य यदि हमने कमाया । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी

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    नयन से ढही है —-

    गीतिका – मापनी – 2122 2122 122 समांत – अही पदांत – है पीर आँसू बन नयन से ढही है । अंग यह जीवन मरण तक रही है। सत्य निश्चल है मही पर सदा से , गाँव बसता जो असत का नही है। स्वप्न खिलते हैं उसी के धरा पर, जो मिटाकर अंध बढ़ता सही है। कर्म पावन जो अनागत सजाये, चैन से सुख नींद सोया वही है । ज्वार उठते प्रेम करुणा जहाँ पर, प्रीति नित मकरंद बनकर बही है। डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

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    करुणा नयन हे नाथ

    छंद – हरिगीतिका (मापनीयुक्त मात्रिक) मापनी- 2212 2212 2212 2212 अथवा- गागालगा गागालगा गागालगा गागालगा समान्त — आते, पदांत – क्यों नही गीतिका करुणा नयन हे नाथ अब अपना बनाते क्यों नहीं ? माया हठी बढ़ती रही उसको मिटाते क्यों नहीं ? बनते रहे अनजान जगसे देख पीड़ित जन सदा, सागर शयन अब त्याग भगवन आज आते क्यों नहीं ? छलनी किया है दुर्जनों ने स्वार्थ भावों के लिए, आँधी चली है वेग से रस बूंद लाते क्यों नहीं ? सत मार्ग को छोड़ें नहीं है भावना रखना हृदय, भ्रमजाल नित अपवाद से जग को बचाते क्यों नहीं ? कटु कीट दीमक कर रहे हत खोखली दीवार को, लोभी कृपण…

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    मेह सावन

    छंद – लौकिक अनाम ( मात्रिक छन्द ) मापनी युक्त २१२२ १२१२ २ गीतिका—- मेह सावन तुम्हें रिझाना है । मीत मनको सरस बनाना है । बूँद रिमझिम तपन मिटाती हो, सुन तराने तुम्हें सुनाना है । भीग जाना मुझे फुहारों में, आज तुमको गले लगाना है । राह कंटक भरी सताती जो, फूल बनकर उसे सजाना है । झूम सावन सरस सुहावन हो, गीत सरगम सुधा लुटाना है । प्रेम मिलता रहे तुम्हारा घन, पर कहर से तुम्हें बचाना है । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

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    चित्र गीतिका

    गीतिका आधार छंद – सरसी मात्रा भार 27- 16,11पर यति लट पट लटपट ललित लोचना,चली किधर सुध भूल । झट पट झटपट कलित पंकजा,लगा लिया पग शूल । डगर सगर पर कुश कंटक से,क्यों करती मन दीन, नयन सुभग तन कोमल बाले,अनगिन वैरी फूल । गागर कटि तट धरे भामिनी,भरे कनी जल भाल, घट-घट घटघट छलके यौवन,चूम रहा तन धूल । सरसी सरसी ताल भरे तू, बरखा मधुर फुहार, छल-छल छलछल छलके जैसे,नदिया सागर कूल । नभ तल चमके दामिनि तड़पे,चली कहाँ बलखात, दम-दम दमके सांवरि गोरी,प्रेम न समझे मूल । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी

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