• गीतिका

    मोह गठरिया

    गीतिका —– छंद – सरसी मोह गठरिया छूटे न पिया,तीरथ करूँ हजार । मेल न प्रीतम मन से मन का,व्यर्थ करूँ शृंगार । तुम्हीं बताओ दाता मेरे,ढूँढ रही दिन रात, कहाँ मिलोगे राम हमारे,पलक बिछाये द्वार । हंस नहीं मैं मानस स्वामी,क्षीर न नीर विवेक, तृषित नयन है दे दो दर्शन,जाऊँ मैं बलिहार । धर्म आड़ ले अर्थ न चाहूँ,रीति नीति के काज, अर्घ्य न पारण मन्नत अपनी,घृत न पीऊँ उधार । प्रेम रंग रस गंध स्पर्श सुख,तनिक करना मान, ढले जहाँ अर्पण में काया,सुंदर जीवन सार । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी

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    साथ अपनों का

    गीतिका हृदय में तुम रहो मेरे नहीं इतना सताया कर । दुआएँ दे दवा देकर न यूँ मुझको जिलाया कर । मिला जो घाव शब्दों का नहीं भूली अभी तक मैं । सही जाती नहीं घातें नहीं बातें बनाया कर । भरोसा तोड़ कर तुमने कहाँ अच्छा किया सोचो, दिया क्यों दर्द अपनों को तनिक खुद तो लजाया कर । लगन मेरी न समझे तुम कहीं यह दर्द बन जाए, दिलासा झूठ ही देकर मुझे यों ही मनाया कर। अभी अवशेष है जीवन बहाकर प्रेम की धारा भुवन में है अभी शुभ कर्म पगअपना बढ़ाया कर । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

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    सजा मंच तैयारी है!!

    समस्त विधा में एक रचना ———————————- छंद : मानव ( सम मात्रिक ) विधान शिल्प : 14 मात्रा / चौपाई में दो मात्रा कम गीतिका —— सजा मंच तैयारी है । देखें किसकी बारी है। खुद से खेलें घाती जो, सोच नहीं हितकारी है । मंदिर मस्जिद छाने जो, दुविधा मन में भारी है । मृत आत्मा भटक रहे जो, छिपी नहीं गद्दारी है । देख रहा स्वयं नियंता, लेकर न्याय कटारी है । लगा हुआ हित चिंतन में, संत मना अविकारी है । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

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    वंदेमातरम्

    आधार छंद – मरहट्ठा माधवी (मापनी मुक्त मात्रिक) विधान – 29 मात्रा (चौपाई 16 मात्रा +दोहा विषम चरण 13 मात्रा) समान्त – आरा, पदांत – वंदेमातरम् गीतिका —— भूलो मत सदियों से अपना,नारा वंदे मातरम् । जग से न्यारा मन मतवाला,प्यारा वंदे मातरम् । सजी निशा है अवगुंठन में,मुखर रागिनी गा रही । खोल पलक को सरस निहारे,तारा वंदेमातरम् । किरणों के रथ बैठ दिवाकर,प्राची से संदेश दे, हुआ सबेरा कर्मठ चढ़ता,पारा वंदेमातरम् । लाजो धानी चूनर पहने,चंचल बाला सी धरा, पीत वसन से लहरे परचम,न्यारा वंदेमातरम् । प्रेम नहीं फिर कहाँ मिलेगा,मत खोना अधिकार को, अ़द्भुत मत अपना अभिमत है,द्वारा वंदेमातरम् । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

  • गीतिका

    चुनाव

    प्रदीप छंद आधारित —– गीतिका —- चूक नहीं करना चुनाव में,अधिमत ही मतदान है , ‘जनता का’ ‘द्वारा जनता’ के,लिए यह संविधान है । चुने नहीं हम तत्व अराजक,गणतंत्र की माँग यही, एक एक मत पड़े हमारा, धरें नीति संज्ञान है । नगर गाँव में चर्चाएँ हैं,जीत हार की होड़ में, पर विवेक जो अपना साधे,नहीं गिरेगा मान है । गलत बयानी अन देखी क्यों,मन में होता खेद जो, देना जबाब उन्हें करारा, छीने अपनी शान है । पालन रक्षण करें देश हित,मत से बदले भाग्य हम, कदम मिलाकर बढ़े प्रेम से,मताधिकार महान है। डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

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    उम्र दे पड़ाव नहीं

    आधार-छंद : घनाक्षरी वर्णिक छंद – 16 यति 15 अंत में लघु-दीर्घ अर्थात 12 समान्त- अरने पदान्त – लगे गीतिका ——- उम्र दे पड़ाव नहीं,धूप शीत छाँव सही, दंभ मन विकार से, संत डरने लगे । पल एक मीत बनें,जीत यश गान घने, दीर्घ नहीं आयु भली, जो अखरने लगे । पुण्य प्रसून हो खिले,मधुप गान से सजे, सुषमा से छविमान, राग भरने लगे । यौवन अनमोल हों,आरक्त से कपोल हों, प्रीति पथ सँवार लें,ज्यों मुकरने लगे । चला मकरंद बान,मूक से बने अजान, रूप राशि के वितान,चित्त हरने लगे । नैन जल पखारते, विषाद मन वारते, जीवन सुहास देख, खं ठहरने लगे । कंटकों से हार नहीं,निष्ठुर कर्तार नहीं,…

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    गांवों में

    आधार छंद लावणी गीतिका —– बसे जहाँ के पूर्वज अपने,खेती-बारी गांवों में । शहरी जीवन भोगी जीते,बिन बीमारी गांवों में । रूप बदलते जोगी देखे,करें दिखावा शहरी हैं, स्वार्थ रहित कर्मठ साधक जन,दिखते भारी गाँवों में । ज्ञान क्षेत्र में सबसे आगे,पुण्य पंथ उच्च विचारी, विद्या धन से नहीं रहेगी,अब लाचारी गांवों में । वस्त्र विलीन स्वदेशी सुंदर,छद्म कृत्य बढ़ा विदेशी, है बची हुई मर्यादा अपनी,नहीं उघारी गांवों में। नित नित चर्चा नयी चुनावी,नहीं शांत मन अपना है, जगी चेतना बढ़े विवेकी,अब की बारी गांवों में । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी

  • गीतिका

    प्रेम की सौगात

    आधार छंद – ‘ आनंदवर्धक छंद ‘ मापनी – 2122 2122 212 समांत – ‘ आत ‘ , पदांत – ‘ है ‘ . ***************************** गीतिका:- हो उठी जागृत सुहानी रात है। मौन तारे भी करें जब बात है । टिमटिमाते जुगनुओं की पंक्तियां, है अमा की रात झंझावात है । दर्द रिश्तों में जहाँ मिलता रहा, प्रीति खाती नित वहीं तब मात है। पास आकर भी नहीं मंजिल मिली, यह समय का जानिए अप घात है । सत्य की राहें अडिग हैं मानिए , बात इतनी जो सभी को ज्ञात है । है प्रतीक्षा की घड़ी नाजुक बड़ी, रात्रि का अवसान देता प्रात है । गुनगुनाये शून्य भी यह…

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