• गीतिका

    “है मसीहा कौन”

    गीतिका मानते हैं जुर्म,का चारो तरफ है जोर अब । है मसीहा कौन देखे आँसुओं के कोर अब । अस्मिता लुटती जहाँ पर एक बारी जानिए, कर जिरह हर बार छीने हर गली हर छोर अब । कर रहे अपराध मिलकर वे सभी ये प्रति प्रहर, व्यर्थ करतें है अमानी रात काली भोर अब । भीत जनता में अदालत से निराशा जानिए , वादियों प्रति वादियों में हो रही बस शोर अब। फर्ज अपना हम निभाते गर चलें हम देश हित, राह बेमानी छले बिन सत्यता हर पोर अब । प्रेम जग में त्याग अर्पण एक दूजे में सधे, बाँधते रिश्ते न जाने कौन सी हो डोर अब । ——————-डॉ.प्रेमलता…

  • गीतिका

    “विश्व खडा़ निस्पंद”

    गीतिका जली शलाका रात-दिन,मचे जहाँ नित द्वंद। कुटिल निरंकुश आग से,मत खेलें स्वच्छंद ।। विकट सदी की आपदा,हिला रही है चूल, ऐसी आँधी है चली, विश्व खडा़ निस्पंद ।। अंतस जलती आग से,मत बनिए अनजान, सुप्त नहीं ज्वालामुखी,मौत लिए यह खंद ।। दान भोग भव प्रीति से,मिट जायें सब भेद, बुनिए गुनिए आपसी, संयम लगे न फंद ।। प्रेम शक्ति ही सार है,गहिकर रखिए छोर, जीवन गति लय ताल में,बना रहे यह छंद।। —————डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

  • गीतिका

    “निज कर्म किया जाये”

    गीतिका —– आधार छंद- वा-द्विभक्ती (मापनीयुक्त मात्रिक) मापनी- 221 1222, 221 1222 समान्त- आये, अपदान्त ————————————– उपकार इसी तन का हो मान अगर पाये । जीवंत सदा रहकर निज कर्म किया जाये । अरमान बडे़ मन में हो उच्च शिखर पाना, कर्तव्य करें बढ़कर पथ-ज्ञान सुधा साये । है ज्ञान बडा जग में सौभाग्य मिले प्रतिपल, संदेश सरस जिसका सम्मान न झुठलाये । संकल्प करें पूरा मत व्यर्थ समय करना, परमार्थ रहे जीवित मतभेद न अपनाये । हो प्रेम समय से यदि अभिसार करें उसका, लाचार हुआ तन-मन शृंगार नहीं भाये । ————— डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

  • गीतिका

    !! मिलन का पर्व होली है!!

    #होली मिलन का पर्व होली है,न भूलो प्यार करने दो । जियेंगें हर खुशी के पल तनिक अभिसार करने दो। मिली जो राह जीने की बढाकर हम कदम जीना, छिपा जो दर्द अपनों में मुझे उपचार करने दो । मिटे पीडा़ जमाने की वफा के नाम पर धोखा , हृदय संवेदना के पल न छल व्यापार करने दो । चुनिंदा जो उसे पाना न राहें हों गलत अपनी, न छोडे़ फैसला मन पर नहीं लाचार करने दो । सही वे दर्द के रिश्ते जिसे मन मीत माने हम, बिवाई पाँव की सहकर उन्हें मनुहार करने दो । चली नौका लहरती ज्यों थपेडो़ं को सहा करती, विकल मन को मिले साहिल…

  • गीतिका

    आधार चिंतन

    आधार छन्द – हरिगीतिका (मापनीयुक्त मात्रिक) मापनी- 2212 2212 2212 2212 समांत – आते पदांत – हम चलें गीतिका — वसुधा सजे शुभ कर्म से पथ को सजाते हम चलें । सुंदर हमारी हर विधा नित गुनगुनाते हम चलें । कविता चुनेगी पथ वही आधार चिंतन हो जहाँ, शुचि भक्ति गणपति साधना नवधा बनाते हम चलें । मायूस होकर दर्द सह हासिल न होगा कुछ कभी, संग्राम करते पथ सदा बाधा मिटाते हम चलें । फागुन वही मौसम सखे खुशियाँ लुटाकर देखिए, है रंग जीवन के बहुत तन मन डुबाते हम चलें । हर भावना को लेखनी देती सदा सम्मान जब, राहें बुलातीं प्रेम प्रतिपल पग बढा़ते हम चलें ।…

  • गीतिका

    !!हो प्रीत रंग पै भारी!!

    आधार छंद – ताटंक / लावणी१६+१४ ************************************ गीतिका :- ———- रास रंग में डूबा फागुन,ज्यों राग उठे दरबारी । पीत पात पथ चहुँदिक् बगरे,अति मुदित लगे मनुहारी । हाट बाट गलियारे सजिकै,अबीर गुलाल रंगीला, होड़ मची परिधानन क्रय की,अँगिया,कंचुकि औ सारी । अब की माँगू प्रीतम प्यारे,मैं साथ तुम्हारे खुशियाँ चढै न दूजो रंग साँवरो, हो प्रीत रंग पै भारी । लाल हरे मिल पीत बखानै,पिय ऐसी रंगत भरना भीगे नैनन प्राण सँवरिया,ये मन भाये पिचकारी । कटुता पटुता द्वेष चाकरी,हत करे हृदय छल माया, आपस के मतभेद मिटा दे,हो प्रेम गीत अविकारी । ————-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

  • गीतिका

    “नेह का आब दाना”

    आधार छद – विध्वंक माला मापनी….. २२१ २२१ २२१ २२ पदान्त….आना “गीतिका” ऋतुराज मोहक लगा ये सयाना । जिसने भरा नेह का आब दाना । रुनझुन चली ठंड यों गुनगुनाती, पीहर गली है उसे जो सजाना । आओ चलें राग जीवन सजायें, चाहत भरा एक नवछंद गाना । रिश्ते सजे रंज रंजिश भुलाकर । अंतस महकता हमें यों बनाना । मधुरस पगे पुष्प चहुँदिक लुभाये, फागुन वसंती तराने सुनाना , कर दो सरस सिक्त आकाश गंगे, तुमने सिखाया द्रवित भीग जाना । कटुता मिटे घुल सके प्रेम करुणा, ईर्ष्या जगत से हमें है मिटाना । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

  • गीतिका

    “पुट खोले सरसो पीली”

    आधार छंद- लावणी विधान- 30 मात्रा, 16-14 पर यति, अंत में वाचिक गा। लावणी – चौपाई + मानव #गीतिका वीणा स्वर दे मातु शारदे, झूमें हृदय सलोना है । तिनक-तिनक धिन ढोल मंँजीरे,गीत फागुनी होना है । मँडराते जो फूल-फूल पर खिलता कलियों का बचपन । गुन गुन गाते अलि गुंजन से,महके उपवन कोना है। काँटों की परवाह न करती,है नंदित तन-मन काया । पीत वसन सुबरन फहराये,रंग बसंती सोना है । सुखद बयारें खिलती बाँछें,घन लहर पवन लहराया । पुट खोले सरसों पीली ज्यों,हरित पात का दोना है झनके नूपुर खनके कँगना,हर अंग-अंग बलखाये, गीत गुने मन मृदुल सरस नित,बीज प्रेम के बोना है। —————डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

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