‘अनजान पथिक को ‘
गीत
साँझ नवेली निशा सुहागन,मन विरही का भरमाया ।
साँसों का अनुपम बंधन,जन्म-मरण तक ये काया ।
पंख लगे घन लौट रहे ज्यों,
थके दिवस के हों प्यारे।
चंद्र कौमुदी रजनी नभ-तल,
शून्य भरे नभ के तारे।
विरह-प्रीति अनजान पथिक को,कैसे हिय में ठहराया।
साँसों का अनुपम बंधन, जन्म-मरण तक ये काया ।
घोल रही हैं चकमक लाली,
स्वतःसाँवरी सँवरी सी ।
चँवर डुलाए पवन वेग से
फाग उड़ाती बदरी सी ।
रंग सभी,बेरंग न जीवन,जिसको कहते हैं माया ।
साँसों का अनुपम बंधन,जन्म-मरण तक ये काया ।
भाग्य बदलते कर्म हमारे
चले साथ दो पग मेरे ।
भटक रहे जो दुविधाओं में,
नियति नटी जब पग फेरे।
राह मिलेगी चलते चलते,’लता’ प्रेम की बटछाया ।
साँसों का अनुपम बंधन,जन्म-मरण तक ये काया ।
————-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी