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याद आओ न तुम
आधार छंद – वाचिक स्त्रग्विणी मापनी- 212 212 212 212 गालगा गालगा गालगा गालगा समान्त-आओ,पदान्त-न तुम [ गीतिका ] दूर रहकर भले याद आओ न तुम । पर मिलन की अनल यों बुझाओ न तुम । गर्व तुम पर रहे मान करती रहूँ, नैन से जल किसी के गिराओ न तुम । लेखनी हो तुम्हीं कर्म की सारथी, दर्प मन में कभी तुच्छ लाओ न तुम। धीर गंभीर लेखन प्रखर भावना, संग चलती रहो पथ दिखाओ न तुम । नित महकती रहो फूल बन कर वहाँ, रूठती वादियों मान जाओ न तुम । यान अभियान आकाश तक ज्यों बढ़ा , चूम लो हर शिखर पग बढ़ाओ न तुम । कम…
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मौन रहेंगे
आधार छंद – रोला मात्रा विधान – 11+13= 24 समान्त-एंगे,पदान्त-मौन रहेंगे गीतिका पानी पानी मान,बहेंगे मौन रहेंगे । छलके अधजल ज्ञान,सुनेंगे मौन रहेंगे । नयन निहारे शून्य,तकेंगे मौन रहेंगे । पथराये ये नैन, गलेंगे मौन रहेंगे । —————————– विछुड़े जीवन साज,नींदिया बैरन छलती, पनघट सूना श्याम, मिलेंगे मौन रहेंगे । बढ़ा नहीं जो चीर,अस्मिता कौन बचाता, सुने न कोई मर्म, छलेंगे मौन रहेंगे । चूनर देते दाग, गिद्ध कुरंग कुविचारी , घूम रहा हैवान, हँसेंगे मौन रहेंगे । करें वार पर वार,लूटते अस्मत,घाती, झूठ खेलता दाँव,सहेंगे मौन रहेंगे । सत्य करे विश्राम,प्रेम दु:खी मन हारा। डग-मग होते पाँव, गिरेंगे मौन रहेंगे । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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संदेश
आधार छंद – सुमेरु मापनी 1222 1222 122 गीतिका —— धरा को पाप का संगम बनाया । अरे ! मानव न तू अब भी लजाया । रही यह राम की धरती जहाँ पर, अनैतिक कर्म को प्रतिदिन बढ़ाया । मधुर बंसी न मोहन अब सुनाते , नहीं घनश्याम जैसा मित्र पाया । विधर्मी कर रहे जीवन भयावह, कहाँ हो शिव गरल जिसमें समाया । विकल वसुधा लगी है आग चहुँ दिक, तुम्हारा आगमन सावन सुहाया । रहा अवशेष जो उसको बचा लो, सदा से स्नेह ने दीपक जलाना । बहाओ प्रेम की गंगा तनिक तुम, मिलेगा पुण्य यदि हमने कमाया । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी
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नयन से ढही है —-
गीतिका – मापनी – 2122 2122 122 समांत – अही पदांत – है पीर आँसू बन नयन से ढही है । अंग यह जीवन मरण तक रही है। सत्य निश्चल है मही पर सदा से , गाँव बसता जो असत का नही है। स्वप्न खिलते हैं उसी के धरा पर, जो मिटाकर अंध बढ़ता सही है। कर्म पावन जो अनागत सजाये, चैन से सुख नींद सोया वही है । ज्वार उठते प्रेम करुणा जहाँ पर, प्रीति नित मकरंद बनकर बही है। डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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करुणा नयन हे नाथ
छंद – हरिगीतिका (मापनीयुक्त मात्रिक) मापनी- 2212 2212 2212 2212 अथवा- गागालगा गागालगा गागालगा गागालगा समान्त — आते, पदांत – क्यों नही गीतिका करुणा नयन हे नाथ अब अपना बनाते क्यों नहीं ? माया हठी बढ़ती रही उसको मिटाते क्यों नहीं ? बनते रहे अनजान जगसे देख पीड़ित जन सदा, सागर शयन अब त्याग भगवन आज आते क्यों नहीं ? छलनी किया है दुर्जनों ने स्वार्थ भावों के लिए, आँधी चली है वेग से रस बूंद लाते क्यों नहीं ? सत मार्ग को छोड़ें नहीं है भावना रखना हृदय, भ्रमजाल नित अपवाद से जग को बचाते क्यों नहीं ? कटु कीट दीमक कर रहे हत खोखली दीवार को, लोभी कृपण…
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मेह सावन
छंद – लौकिक अनाम ( मात्रिक छन्द ) मापनी युक्त २१२२ १२१२ २ गीतिका—- मेह सावन तुम्हें रिझाना है । मीत मनको सरस बनाना है । बूँद रिमझिम तपन मिटाती हो, सुन तराने तुम्हें सुनाना है । भीग जाना मुझे फुहारों में, आज तुमको गले लगाना है । राह कंटक भरी सताती जो, फूल बनकर उसे सजाना है । झूम सावन सरस सुहावन हो, गीत सरगम सुधा लुटाना है । प्रेम मिलता रहे तुम्हारा घन, पर कहर से तुम्हें बचाना है । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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चित्र गीतिका
गीतिका आधार छंद – सरसी मात्रा भार 27- 16,11पर यति लट पट लटपट ललित लोचना,चली किधर सुध भूल । झट पट झटपट कलित पंकजा,लगा लिया पग शूल । डगर सगर पर कुश कंटक से,क्यों करती मन दीन, नयन सुभग तन कोमल बाले,अनगिन वैरी फूल । गागर कटि तट धरे भामिनी,भरे कनी जल भाल, घट-घट घटघट छलके यौवन,चूम रहा तन धूल । सरसी सरसी ताल भरे तू, बरखा मधुर फुहार, छल-छल छलछल छलके जैसे,नदिया सागर कूल । नभ तल चमके दामिनि तड़पे,चली कहाँ बलखात, दम-दम दमके सांवरि गोरी,प्रेम न समझे मूल । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी
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सागर विशाल
आधार छंद- तारासरालगा मापनी – 221 2121 1221 212 समान्त- आती पदान्त -रही मुझे गीतिका — सागर विशाल उर्मि सुहाती रही मुझे । लहरें उछाल संग रिझाती रही मुझे । करती रही विभोर सलोनी सुबह सदा, पावस सरस बयार जगाती रही मुझे । है अस्त या उदीय धरा संग हो गगन, रवि लालिमा सुहास लुभाती रही मुझे । संघर्ष में विवेक हताशा मिटा हृदय, राहें वहीं अनेक बुलाती रही मुझे । हो लक्ष्य यदि विकास नियामक सही मिले, परिणाम वह सदैव दिखाती रही मुझे। जीवंत हो सप्रेम लुटाकर मिले खुशी, कटुता करे विनाश बताती रही मुझे । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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दिन सुहाने आ गये
————————— आधार छन्द– गीतिका मापनी-2122 2122 2122 212 समान्त-आनेपदान्त-आ गये गीतिका ——- दीन करती गर्दिशी बातें सुनाने आ गये । दो महकने आज मुझको क्यों रुलाने आ गये । बीत जाने दो पलों को थे कभी अपने नहीं । खोल दो अब खिड़कियों को दिन सुहाने आ गये। राज जीवन में कभी कुछ भी नहीं था जान लो, खुल गये कोरक नयन सपने सताने आ गये । लेखनी शृंगार करती काव्य धारा में नहा, पंख लगते अक्षरों को गुनगुनाने आ गये । कामनाएँ जागती जो स्वप्न दीर्घा में सदा, प्रेम की दुनिया अलग हम वह बसाने आ गये । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी कोरक= कली, मुकुल
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सुरमई शाम
छ्न्द – पारिजात मापनी- 2122 12 12 22 समांत- अर, पदांत- आती गीतिका सुरमई शाम यूँ निखर जाती । चंद्रिका गीत बन बिखर जाती । बादलों में छिपा कहीं चंदा, देख कर दामिनी सिहर जाती । दूरियाँ मीत की रुलातीं हैं, यामिनी प्रीत की ठहर जाती । रूठती नींद भी बड़ी वैरन, जागती रैन यों गुज़र जाती । धुंधला चाँद ज्यों नजर आता, रागिनी प्रेम की सँवर जाती । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी