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सरस प्रेम को रोपना जानती हूँ !
आधार छंद- भुजंग प्रयात मापनी -122,122,122,122 समान्त- अना पदान्त – जानती हूँ ! ~~~~~~~~~~~~~~~~ गीतिका लिखूँ मैं सहज सर्जना जानती हूँ । मिथक को सभी तोड़ना जानती हूँ । सधे सिद्धियाँ सत्य आधार माना, रहित छद्म से अर्चना जानती हूँ । दिशा ज्ञान लेकर बढ़ी हर कदम मैं, नहीं हार को मानना जानती हूँ । विकलता न उपहास अज्ञानता वश, नहीं सुप्त हूँ जागना जानती हूँ । जगे लेखनी त्रस्त देखूँ धरा जब, विकट आपदा रोकना जानती हूँ । सुमन पाँखुरी से खिले वाटिका ज्यों, सरस प्रेम को रोपना जानती हूँ । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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जयहिंद हिन्द की सेना
वंदेमातरम् —- मातृभूमि तेरा अभिनंदन लिखनी अमर कहानी है । नैन भिगाती उनकी गाथा, जिसने दी कुर्बानी है । वर्ष जहाँ बीते पचहत्तर ,बातें लगती ये कल की, #जन गण मन है राष्ट्रगान ये,गाकर याद दिलानी है । साक्षी है इतिहास आज भी,रक्त सनी थी धरती माँ, एक-एक कतरों की कीमत,तब हमने पहिचानी है । नहीं दिवाली जली होलिका, वीर सपूतों के आँगन, डरी नहीं बारूदों से जो, माटी यह बलिदानी है । नींद कहाँ थीं चैन गँवाये,लडे़ सूरमा रातो-दिन जय हिंद हिंद की सेना की,साहस कथा जुबानी है । देश-प्रेम की गौरवगाथा,सहज प्रवाहित नस-नस में, उन्नत मस्तक आज लिए ये,कहती मुखरित बानी है। ******************* डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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कड़ियाँ मीठी-खट्टी ।
आधार छंद- “विष्णुपद” (मापनीमुक्त मात्रिक) विधान- 26 मात्रा, 16-10 पर यति, अंत में वाचिक गा. विष्णुपद = चौपाई + 10 मात्रा (समकल) समांत _ अर पदांत _ गयीं गीतिका — पलकों में जैसे यादों की,मुक्ता ठहर गयीं । कड़ियाँ मीठी-खट्टी जिनकी,जाने किधर गयीं । नित अनजाने भय में अपने,दिन औ रैन किया, ईश तुम्हारी नगरी सगरी, कैसी बिखर गयीं । जिन अपनों को खोया हमने,कोई लौटा दे, पलतीं अवसादों की धारा,छलकीं-लहर गयीं । जीवन की आपा धापी में,किस्से हैं अनगिन, दोषी ये दुनिया या खुद की,कमियाँ सुधर गयीं । कर असीम काँटों का संचय,तथ्य गया-गुज़रा, ठहर गया हो सावन या के,बरखा गुजर गयीं । संबल प्रेम ; न हमदर्दी हो,यदि…
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किरणें हँसती जब अंचल में !
आधार – तोटक (वर्णिक) मापनी – 112×4, अथवा सगण ×4 समांत – अल पदांत – में गीतिका —– मन उत्पल कुंज खिले जल में । ठहरी मृदु बूँद कनी दल में । वसुधा अपनी छविमान हुई, किरणें हँसती जब अंचल में ! नव प्रात लिए रवि नंदित है, यह शुभ्र वितान सजा पल में । दिशि रक्तिम भाल सुहाग भरी, विहगावलि गान करे तल में । गुणगान करें मन क्यों उनका, सत दीन हुआ जब साँकल में । नित दर्द सहे जन जीवन जो उनमाद नशा भरते छल में । सत प्रेम सुधा हर आँगन हो अनुराग भरो कहती कल में । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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दृग झरना सीख
गीतिका ज्योति जलेगी स्नेह तरल नित,भरना सीख । करुण सदय हो निर्झरिणी दृग,झरना सीख । दूषित करते पावन नद को, गिरते क्षार , दोष रहित जल सुरसरि निर्मल,करना सीख। महक उठे निष्कंटक पथ हो,चल कर साथ, सुमन पथी तू सुरभित हो मन,हरना सीख । नवल चेतना भर ले तन-मन,गायें गीत चरैवेति सिद्धांत सहज है, चरना सीख, साहस खोकर जीवन कैसा,सुख-दुख भोग, काया तो क्षणभंगुर है मत, डरना सीख । सेवा कर पितु मातु हितों की,मिलता पुण्य, सतत कर्म रत भव सागर से,तरना सीख । भ्रमर गूँज से खिली वाटिका,महके प्रेम, अनुयायी सौरभ का बन पग,धरना सीख । ———– डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी