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!!हो प्रीत रंग पै भारी!!
आधार छंद – ताटंक / लावणी१६+१४ ************************************ गीतिका :- ———- रास रंग में डूबा फागुन,ज्यों राग उठे दरबारी । पीत पात पथ चहुँदिक् बगरे,अति मुदित लगे मनुहारी । हाट बाट गलियारे सजिकै,अबीर गुलाल रंगीला, होड़ मची परिधानन क्रय की,अँगिया,कंचुकि औ सारी । अब की माँगू प्रीतम प्यारे,मैं साथ तुम्हारे खुशियाँ चढै न दूजो रंग साँवरो, हो प्रीत रंग पै भारी । लाल हरे मिल पीत बखानै,पिय ऐसी रंगत भरना भीगे नैनन प्राण सँवरिया,ये मन भाये पिचकारी । कटुता पटुता द्वेष चाकरी,हत करे हृदय छल माया, आपस के मतभेद मिटा दे,हो प्रेम गीत अविकारी । ————-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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“नेह का आब दाना”
आधार छद – विध्वंक माला मापनी….. २२१ २२१ २२१ २२ पदान्त….आना “गीतिका” ऋतुराज मोहक लगा ये सयाना । जिसने भरा नेह का आब दाना । रुनझुन चली ठंड यों गुनगुनाती, पीहर गली है उसे जो सजाना । आओ चलें राग जीवन सजायें, चाहत भरा एक नवछंद गाना । रिश्ते सजे रंज रंजिश भुलाकर । अंतस महकता हमें यों बनाना । मधुरस पगे पुष्प चहुँदिक लुभाये, फागुन वसंती तराने सुनाना , कर दो सरस सिक्त आकाश गंगे, तुमने सिखाया द्रवित भीग जाना । कटुता मिटे घुल सके प्रेम करुणा, ईर्ष्या जगत से हमें है मिटाना । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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“पुट खोले सरसो पीली”
आधार छंद- लावणी विधान- 30 मात्रा, 16-14 पर यति, अंत में वाचिक गा। लावणी – चौपाई + मानव #गीतिका वीणा स्वर दे मातु शारदे, झूमें हृदय सलोना है । तिनक-तिनक धिन ढोल मंँजीरे,गीत फागुनी होना है । मँडराते जो फूल-फूल पर खिलता कलियों का बचपन । गुन गुन गाते अलि गुंजन से,महके उपवन कोना है। काँटों की परवाह न करती,है नंदित तन-मन काया । पीत वसन सुबरन फहराये,रंग बसंती सोना है । सुखद बयारें खिलती बाँछें,घन लहर पवन लहराया । पुट खोले सरसों पीली ज्यों,हरित पात का दोना है झनके नूपुर खनके कँगना,हर अंग-अंग बलखाये, गीत गुने मन मृदुल सरस नित,बीज प्रेम के बोना है। —————डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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साधना के पथ बहुत हैं !
गीतिका सत्य सार्थक सर्वदा ही पर प्रमुखता है कहाँ ? नित्य हों अपवाद रिश्तों में निकटता है कहाँ ? है सरल संकल्प लेना,हो निभाना मानिए, साधना के पथ बहुत है पर सहजता है कहाँ ? कृत्य की अनदेखियाँ,हो रहीं व्यापक सभी लूटते यूँ अस्मिता जो,फिर मनुजता है कहाँ ? पुस्तकों तक जो सिमटती,लेखनी का मान क्या, दृश्य हैं पाठक नहीं वे, वह विकलता है कहाँ ? लेखनी शृंगार लिखती,मान दे उपमान को, शुद्धता मन की नहीं तो,दृग उरझता है कहाँ ? कवि हृदय में गीत हो संगीत अनहद साधना, ताल-लय-गति भाव बोधक,हिय समझता है कहाँ । प्रेम का उद्गार सच्चा, यदि लगन सच्ची रहे, खोज लेती हर विधा को,मन सँभलता…
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गजानन
#गजानन आओ मेरे द्वार । सुखद तुम मूषक सजे सवार । विराजो गौरी अंक गणेश, तुम्हारी महिमा अपरम्पार । छंद – दिग्बधू ( मापनीयुक्त) 221 2122 221 212 गीतिका —- अंतस विमल करो हे देवा नमन तुम्हें। दे दो सदा रहे यों खुशियाँ सदन हमें । ममता लुटा रही माँ मलयज बयार सी, स्वागत अँगन हमारे कर दो मगन हमें । चाहे न लेखनी यह आसन उधार अब, हिंदी प्रखर बने दो रसना दसन हमें । मुक्ता लड़ी बनाऊँ आखर सँवार दूँ , चाहूँ न मौन व्रत अब करना सृजन हमें । बन प्रेम इन दृगों में मनमोर नाचता, दो शारदीय आभा शोभित गगन हमें । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी 19/303…
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गजानन
#गजानन आओ मेरे द्वार । सुखद तुम मूषक सजे सवार । विराजो गौरी अंक गणेश, तुम्हारी महिमा अपरम्पार । छंद – दिग्बधू ( मापनीयुक्त) 221 2122 221 212 गीतिका —- अंतस विमल करो हे देवा नमन तुम्हें। दे दो सदा रहे यों खुशियाँ सदन हमें । ममता लुटा रही माँ मलयज बयार सी, स्वागत अँगन हमारे कर दो मगन हमें । चाहे न लेखनी यह आसन उधार अब, हिंदी प्रखर बने दो रसना दसन हमें । मुक्ता लड़ी बनाऊँ आखर सँवार दूँ , चाहूँ न मौन व्रत अब करना सृजन हमें । बन प्रेम इन दृगों में मनमोर नाचता, दो शारदीय आभा शोभित गगन हमें । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी 19/303…
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रातें गयीं सुहानी
आधार छंद दिग्पाल गीतिका — बिसरे नही तुम्हें हम,यादें अभी पुरानी । तुमने भुला दिया जो,घडियाँ बनी कहानी । मन में नहीं दुराशा, गाते रहे तराने, मुझको सजा मिली क्यों,रातें गयीं सुहानी । देते रहे सजा तुम,रातें कटे न दिन वे, उनको रही सजाये,ढलती गयी जवानी । पलभर न चैन आये,बातें लगीं अजब सी, सजते रहे नजारे, सदियाँ हुईं रवानी । पथ प्रेम का सहज ये,मंथन करें सभी मिल, शुचिता भरें हृदय में,करिए नहीं अमानी । ————————-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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रातें गईं सुहानी
आधार छंद दिग्पाल गीतिका — बिसरे नही तुम्हें हम,यादें अभी पुरानी । तुमने भुला दिया जो,घडियाँ बनी कहानी । मन में नहीं दुराशा, गाते रहे तराने, मुझको सजा मिली क्यों,रातें गयीं सुहानी । देते रहे सजा तुम,रातें कटे न दिन वे, उनको रही सजाये,ढलती गयी जवानी । पलभर न चैन आये,बातें लगीं अजब सी, सजते रहे नजारे, सदियाँ हुईं रवानी । पथ प्रेम का सहज ये,मंथन करें सभी मिल, शुचिता भरें हृदय में,करिए नहीं अमानी । ————————-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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सरस प्रेम को रोपना जानती हूँ !
आधार छंद- भुजंग प्रयात मापनी -122,122,122,122 समान्त- अना पदान्त – जानती हूँ ! ~~~~~~~~~~~~~~~~ गीतिका लिखूँ मैं सहज सर्जना जानती हूँ । मिथक को सभी तोड़ना जानती हूँ । सधे सिद्धियाँ सत्य आधार माना, रहित छद्म से अर्चना जानती हूँ । दिशा ज्ञान लेकर बढ़ी हर कदम मैं, नहीं हार को मानना जानती हूँ । विकलता न उपहास अज्ञानता वश, नहीं सुप्त हूँ जागना जानती हूँ । जगे लेखनी त्रस्त देखूँ धरा जब, विकट आपदा रोकना जानती हूँ । सुमन पाँखुरी से खिले वाटिका ज्यों, सरस प्रेम को रोपना जानती हूँ । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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जयहिंद हिन्द की सेना
वंदेमातरम् —- मातृभूमि तेरा अभिनंदन लिखनी अमर कहानी है । नैन भिगाती उनकी गाथा, जिसने दी कुर्बानी है । वर्ष जहाँ बीते पचहत्तर ,बातें लगती ये कल की, #जन गण मन है राष्ट्रगान ये,गाकर याद दिलानी है । साक्षी है इतिहास आज भी,रक्त सनी थी धरती माँ, एक-एक कतरों की कीमत,तब हमने पहिचानी है । नहीं दिवाली जली होलिका, वीर सपूतों के आँगन, डरी नहीं बारूदों से जो, माटी यह बलिदानी है । नींद कहाँ थीं चैन गँवाये,लडे़ सूरमा रातो-दिन जय हिंद हिंद की सेना की,साहस कथा जुबानी है । देश-प्रेम की गौरवगाथा,सहज प्रवाहित नस-नस में, उन्नत मस्तक आज लिए ये,कहती मुखरित बानी है। ******************* डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी