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मेह सावन
छंद – लौकिक अनाम ( मात्रिक छन्द ) मापनी युक्त २१२२ १२१२ २ गीतिका—- मेह सावन तुम्हें रिझाना है । मीत मनको सरस बनाना है । बूँद रिमझिम तपन मिटाती हो, सुन तराने तुम्हें सुनाना है । भीग जाना मुझे फुहारों में, आज तुमको गले लगाना है । राह कंटक भरी सताती जो, फूल बनकर उसे सजाना है । झूम सावन सरस सुहावन हो, गीत सरगम सुधा लुटाना है । प्रेम मिलता रहे तुम्हारा घन, पर कहर से तुम्हें बचाना है । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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चित्र गीतिका
गीतिका आधार छंद – सरसी मात्रा भार 27- 16,11पर यति लट पट लटपट ललित लोचना,चली किधर सुध भूल । झट पट झटपट कलित पंकजा,लगा लिया पग शूल । डगर सगर पर कुश कंटक से,क्यों करती मन दीन, नयन सुभग तन कोमल बाले,अनगिन वैरी फूल । गागर कटि तट धरे भामिनी,भरे कनी जल भाल, घट-घट घटघट छलके यौवन,चूम रहा तन धूल । सरसी सरसी ताल भरे तू, बरखा मधुर फुहार, छल-छल छलछल छलके जैसे,नदिया सागर कूल । नभ तल चमके दामिनि तड़पे,चली कहाँ बलखात, दम-दम दमके सांवरि गोरी,प्रेम न समझे मूल । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी
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सागर विशाल
आधार छंद- तारासरालगा मापनी – 221 2121 1221 212 समान्त- आती पदान्त -रही मुझे गीतिका — सागर विशाल उर्मि सुहाती रही मुझे । लहरें उछाल संग रिझाती रही मुझे । करती रही विभोर सलोनी सुबह सदा, पावस सरस बयार जगाती रही मुझे । है अस्त या उदीय धरा संग हो गगन, रवि लालिमा सुहास लुभाती रही मुझे । संघर्ष में विवेक हताशा मिटा हृदय, राहें वहीं अनेक बुलाती रही मुझे । हो लक्ष्य यदि विकास नियामक सही मिले, परिणाम वह सदैव दिखाती रही मुझे। जीवंत हो सप्रेम लुटाकर मिले खुशी, कटुता करे विनाश बताती रही मुझे । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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दिन सुहाने आ गये
————————— आधार छन्द– गीतिका मापनी-2122 2122 2122 212 समान्त-आनेपदान्त-आ गये गीतिका ——- दीन करती गर्दिशी बातें सुनाने आ गये । दो महकने आज मुझको क्यों रुलाने आ गये । बीत जाने दो पलों को थे कभी अपने नहीं । खोल दो अब खिड़कियों को दिन सुहाने आ गये। राज जीवन में कभी कुछ भी नहीं था जान लो, खुल गये कोरक नयन सपने सताने आ गये । लेखनी शृंगार करती काव्य धारा में नहा, पंख लगते अक्षरों को गुनगुनाने आ गये । कामनाएँ जागती जो स्वप्न दीर्घा में सदा, प्रेम की दुनिया अलग हम वह बसाने आ गये । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी कोरक= कली, मुकुल
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सुरमई शाम
छ्न्द – पारिजात मापनी- 2122 12 12 22 समांत- अर, पदांत- आती गीतिका सुरमई शाम यूँ निखर जाती । चंद्रिका गीत बन बिखर जाती । बादलों में छिपा कहीं चंदा, देख कर दामिनी सिहर जाती । दूरियाँ मीत की रुलातीं हैं, यामिनी प्रीत की ठहर जाती । रूठती नींद भी बड़ी वैरन, जागती रैन यों गुज़र जाती । धुंधला चाँद ज्यों नजर आता, रागिनी प्रेम की सँवर जाती । डॉ प्रेमलता त्रिपाठी
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यह उजाला देखिए
गीतिका —— छंद – आधार छंद -आनंदवर्धक मापनी – 2122 2122 2122 212 समांत – आला, पदांत देखिए सार जीवन आज देते, जो हवाला देखिए । कंठ तक मद में भरे है, हाथ प्याला देखिए । अर्थ जीवन दे रहे रख, अर्थ की ही भावना, भूख जिह्वा दंत छीने, मुख निवाला देखिए । है तड़पती प्यास लेकर,शून्य में देखे सदा, भाग्य को है कोसती हत,है कराला देखिए । मार मन जीते रहे जो,कौन उनको पूछता, हर कदम उठतें वहीं है,नित सवाला देखिए । है गरीबी भूख से हर,पल बिखरती कामना, देश माँगे आज कैसा, यह उजाला देखिए। डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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मेघ मनुहार
गीतिका सांवरे मनुहार करती अब चले आओ । घन घनाघन नाद लेकर बूँद बन गाओ । मीत मेरा मान रखना हे सलोने घन, क्यों बहुत तरसा रहे हो मेह आ जाओ । तोड़ सीमा आज आतप क्यों बढ़ाते तन । कंठगत हैं प्राण प्यासे अब तरस खाओ । हम निहारें बाट तेरी प्यास है बढ़ती, सावनी रिमझिम फुहारें प्राण सरसाओ । सूखते अब खेत जन धन है किसानी ठप, शस्य श्यामल कर धरा पर प्रीति महकाओ । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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मील के पत्थर
आधार छंद -रजनी समान्त – आतीं पदान्त – हैं मापनी -2122 2122 2122 2 ,,,,, गीतिका दूर तक फैली मुझे राहें बुलाती हैं । मील के पत्थर बनों मुझको सिखातीं हैं । शांत चिंतन साधना देती सहारा जो, चेतना की ज्योति वे अंतस जगातीं हैं नित्य यादों को बुलाकर पास लातीं जो, मद भरी मुस्कान में मुझको डुबातीं हैं । बस गये हो तुम हृदय में शांत उपवन से, बैठ कर तनहाइयाँ भी गुनगुनातीं हैं । प्रेम मन भाया अकेला पन सरस चिंतन, शांत रजनी स्वप्न आँखों में सजातीं हैं । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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नयी राह चलना
………… आधार छंद- वाचिक भुजंगप्रयात मापनी – 122 122 122 122 लगावली – लगागा लगागा लगागा लगागा समान्त- अलना, अपदांत नयी रोशनी में नयी राह चलना । दिवा स्वप्न से तुम सदा ही सँभलना । चलो साहसी बन सफलता मिलेगी, खुशी को अहं में नहीं तुम बदलना । कहीं मौन मजबूरियाँ बन न जाये, नहीं सत्य के पथ कभी तुम फिसलना । मिले रात काँटों भरी सेज बनकर, न भयभीत होना नहीं तुम मचलना । घड़ी धैर्य की भी न छोटी बड़ी हो, इरादे रहें नेक मन से न ढलना । प्रकृति संपदा जो मिली है सुहानी, उसे स्वार्थ अपने नहीं तुम मसलना । बनो प्रेम दीपक तमस को मिटा…
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रात में
आधारछंद – वाचिक स्रग्विणी मापनी – 212, 212 ,212 ,212 समांत – अरी , पदांत – रात में गीतिका —- रागिनी जो सजी साँवरी रात मेंं । बन सँवर मैं गयी बावरी रात में । जो खुले थे झरोखे बयारें चलीं, बज उठी पैजनी पाँव री रात में संग गाती बहारें उड़ा मन कहीं, रोक पाये न कोई दाँव री रात में । साजना बिन तुम्हारे अधूरी रही, प्राण जोगन फिरे गाँव री रात में प्रेम यादें सतातीं निशा बीतती, देख दुल्हन बनी काँवरी रात में । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी