• गीतिका

    अमा की रात झंझावात है —

    आधार छंद – ‘ आनंदवर्धक छंद ‘ मापनी – 2122 2122 212 समांत – ‘ आत ‘ , पदांत – ‘ है ‘ . ***************************** गीतिका:- हो उठी जागृत सुहानी रात है। मौन तारे भी करें जब बात है । टिमटिमाते जुगनुओं की पंक्तियां, है अमा की रात झंझावात है । दर्द रिश्तों में जहाँ मिलता रहा, प्रीति खाती नित वहीं तब मात है। पास आकर भी नहीं मंजिल मिली, यह समय का जानिए अप घात है । सत्य की राहें अडिग हैं मानिए , बात इतनी जो सभी को ज्ञात है । है प्रतीक्षा की घड़ी नाजुक बड़ी, रात्रि का अवसान देता प्रात है । गुनगुनाये शून्य भी यह…

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    सींच दे आरोह को

    छंद गीतिका मापनी : 2122,2122,2122,212 मुक्तक—- जी रहा हर व्यक्ति क्यों कर,दर्द लेकर द्रोह को । कर्म सुंदर साथ हो तू, छोड़ माया मोह को । सारथी बन कर मिलेगें,श्याम सुंदर आज भी, शोध जागृत कर सयाने, मूल में संदोह को । गंध चंदन भाव अर्पण, की जरूरत हैं यहाँ, दो महकने नित्य जीवन,खो न देना छोह को । दुख निराशा की घडी़ में,भोर बन कर जागना, एक दूजे के लिए बन,राह संबल टोह को । दर्द को कह अलविदा तू,मीत मेरे इस समय, प्रेम की जो बेल उसको,सींच दे आरोह को । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

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    हिना के रंग

    गीतिका— मापनी-1222 1222 1222 1222 समांत – आमपदांत – लिक्खा है हिना के रंग में हमने तुम्हारा नाम रक्खा है । छिपाकर प्रीत का आखर उसे बेनाम रक्खा है । कहीं कोई न मुझसे छीन ले यह प्रेम का बंधन, सजाया है उसे मन में भला अंजाम रक्खा है । मिलन तुमसे न चाहूँ मैं रही अरदास इतनी सी, तुम्ही में खो सकूँ खुद को सुबह से शाम रक्खा है । कली का मान रखना तुम कहीं विश्वास मत खोना, मिटा दो दाग जीवन का जिसे बदनाम रक्खा है । कि रिश्ते क्यों रहें रिसते मधुर पावन बने नाता, महकती है हिना जैसे कि मीरा श्याम रक्खा है । डॉ.प्रेमलति…

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    समय न गँवायें

    छंद-द्विगुणित- गंग (सम मात्रिक) शिल्प विधान- मात्रिक भार =9,9 =18 गीतिका— पीडा़ जगायें, न दीन सतायें । करुणा नयन ये,आँसू बहायें । साहस भरें दम,पूजा फलेगी, पग-पग सदा हम,मिलकर बढा़यें । घातक गरीबी,व्याकुल करे मन, विपदा कटेगी,अजान मिटायें । आयी चीन से,आफत करोंना करनी सुरक्षा,समय न गँवायें । कानून अपना,अंधा न बहरा, असत्य बुराई, न शीश उठायें । मुस्कान अपनी,यूँ खो रही क्यों, हँसती बहारें, फिर द्वार आयें । अंतस सँवारे,हो प्रेम पुष्पित, क्यों पाप धोने, गंगा नहायें । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी

  • गीतिका

    जीत घुटने टेक दे

    विधा:-गीतिका आधार छंद:-गीतिका(मापनीयुक्त मात्रिक) विधान:-कुल 26 मात्राएँ 14,12 पर यति मापनी:-2122 2122 2122 212 सामान्त:-आना पदांत:-चाहिए मीत सच्चा मन मिले वह,पल सुहाना चाहिए, शुद्ध अपनी धारणा हो, पथ बनाना चाहिए । प्राण घाती स्वार्थ तजिए,मिल सके खुशियाँ तभी, एक दूजे से मिले वह, प्यार पाना चाहिए। जीत घुटने टेक दे उस, पीर का भी अंत हो, हार के बदले विवशता, को मिटाना चाहिए। अंत कर दे जो तमस का,हो उजाला हर सुबह, एक दीपक ज्ञान का हो, वह जलाना चाहिए । मीत जो बनते रुकावट, नासमझ हैं वे सदा, हो रहे गुमराह उनको, राह दिखाना चाहिए । —————डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

  • गीतिका

    अधिकार माँगे

    छंद- इन्द्रवज्रा (द्विगुणित) वर्णिक मापनी 22 1 22 1 121 22, 22 1 22 112 122 पदांत- देगी समांत- आन गीतिका — राहें बनातीं अविकार शिक्षा, सोचें भला तो अनुदान देगी । संकल्प पाना अधिकार माँगों,शिक्षा सही हो समा’धान देगी। चिंता बढ़ाये विकराल दंगे,होगें सभी ये दिग भ्रांत मानें, संग्राम घातें हठ से बढे़गी,निंदा सदा ये अवमान देगी । बेबाक बातें दुखड़े न कोई, द्रोही बनें हैं कुछ आततायी, होगी भलाई जिससे कहीं क्या,अंगार है ये नुकसान देगी। जागो उठो देश तुम्हें बचाना,आंदोलनों से कुछ लाभ है क्या? धोखा स्वयं को छलना कहेंगे,चालें कुचालेंअनजान देगी। जागो युवा हे प्रहरी धरा के,भू भारती की गरिमा तुम्हीं से, गाओ तराने वह प्रीत…

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    हमारा हिंदुस्तान!!

    आधार-छंद: रास 16/6 समांत: आनापदांत: बन्द करो। गीतिका —- सदा अँधेरे तीर चलाना,बंद करो । रास न आये रंग जमाना,बंद करो । 1 अधिकारों की बातें करना,ठीक नहीं, किस्सा अपना वही पुराना,बंद करो। अंग भंग कर पुण्य धरा को,बाँट दिया । घायल माँ को और सताना, बंद करो । उर के दाहक चीर हरण कर,बैठ गये, बातों से अब मन बहलाना, बंद करो। हित चिंतन में बने विरोधी,आपस में शब्दों के सब तीर चलाना,बंद करो। दया प्रेम सद्भाव बसाओ,जन-जन में, षडयंत्रों का पाठ पढ़ाना, बंद करो । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

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    उम्मीदों का आकाश!

    गीतिका — गगन चूमता गिरि शिखर,प्रात करे शृंगार । दिशि प्राची मन मोहिनी,कंचन पहने हार । मुदित हुआ जनु बाल रवि,कंदुक रहा उछाल, गगनाँचल से हो रही, खुशियों की बौछार । नीली छतरी के तले, जीवन के हर रूप, भोग व्याधि संघात से,बचा न कोई द्वार । भूख,ग़रीबी यातना, रोटी की अरदास, पड़े दीन असहाय का,धरा-गगन घर बार । खपा चलीं हैं पीढियाँ,अपने पन का मंत्र, आस भरे आकाश का,दाता पालन हार । बरखा सावन फागुनी,शीत साँवरी रात, शून्य; नहीं ये प्रेम नभ,समझो सब विस्तार। ———————डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

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    बिखरा हुआ समाज

    गीतिका आधार छन्द – सम्पदा मापनी – 221 2121 1221 2121 गागाल गालगाल लगागाल गालगाल बिखरा हुआ समाज,सहे वेदना अपार । बाधा हरो सुजान,सहज नीति लो विचार । हारा लगे विवेक, सभी कर रहे विवाद, विश्वास खो अधीर,उगलते सतत विकार । आस्था हृदय विशेष,करो धर्म-कर्म नेक, श्री राम जी सहाय, सुने दीन की पुकार । तज मोह निर्विकार,भजो दीनबंधु नाथ, मंदिर बने विशाल,खुले नित प्रवेश द्वार । अनुबंध हो सप्रेम, मिले राह भी अनेक, निर्माण मूल स्रोत, यही मानिए न हार । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

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    दीप पर्व

    आधार छंद – विधाता गीतिका 1222 1222 1222 1222 समांत – आती, पदांत – है ! ————————– गगन तारों भरा जैसे,धरा भी जगमगाती है । दिये की रोशनी जगमग,खुशी के गीत गाती है । अभावों के अँधेरे को,चलो मिलकर मिटायें हम, लुटायें अंजुरी भरकर,मनुजता रंग लाती है प्रकाशित यामिनी होती,तरंगित दीप्त लड़ियों से, अँधेरा रह न पाये यों,निशा भी झिलमिलाती है । अमावस रात काली यह,सहज दीपक सजायें हम, सपन नैना सजायें ये, हवा भी गुनगुनाती है । जलाओ प्रेम के दीपक,बहे मन नेह धारा में, सजे मंगल कलश ज्योतित,यही शोभा लुभाती है । डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

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