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“हाथ मले क्यों रिक्त”
#गीत दूर करें हम सभी रिक्तियाँ, दृढ़मति कर विश्वास। मन के मनके की माला में, पिरो दिया यदि आस। भरा हुआ या खाली आधा, अपनी अपनी दृष्टि। ऊसर-बंजर भरें निराशा, भर देती तब वृष्टि। सजग कर्म-पथ करना होगा, नित्य नवल विन्यास। मन के मनके की माला में, पिरो दिया यदि आस। समय नहीं रुकता है नियमित, नियति साधना सिक्त। खो देते हैं अवसर कितने, हाथ मले क्यों रिक्त। श्रम-सीकर को बहना होगा, कर्मठ तजें विलास। मन के मनके की माला में, पिरो दिया यदि आस। मनुज-मनुजता से अनुबंधित, प्रेम झरोखे खोल। धैर्य-धर्म से कटे आपदा, जीवन है अनमोल। पुण्य प्रसून सँवरना होगा, मत कर उसे उदास। मन के मनके की…
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अंबर का शृंगार तुम्हीं से, श्वेत स्वच्छ अकलंक।
#गीत रंग भरे सपनों की कलशी, सजी तारिका नेक, ध्रुवक साधना छंद सृजन के,भाव भरे अतिरेक। धवल चँद्रिका पूर्ण चंद्र की, अनुपम रूप मयंक, अंबर का शृंगार तुम्हीं से, श्वेत स्वच्छ अकलंक। अनुपम रूप मयंक………. बिछा रही वह पलक पाँवड़े, देखे बारंबार, थाल सजाए ज्योतित; रमणी, देती अर्घ्य-उतार। दर्शन दुर्लभ तीज-चौथ के, साधक उत्कट बंक, उदित हुआ नीलाभ यथावत,पंकज खिलता पंक। अनुपम रूप मयंक………. झरे बूँद रिमझिम तुषार के, सुखदा कांति विशेष, अमिय कमंडल लेकर आये, मिटी तृषा अनिमेष। शुभ्र वेश उन्मेष देखकर, चातक लगे सशंक, गर्वित होती उर्मिल लहरे, लेकर तुमको अंक। अनुपम रूप मयंक………. साज सरस से छेड़ रागिनी, रीझे शारद विज्ञ, जगा रही ज्यों अलख ज्योत्स्ना,अनुरागी अनभिज्ञ।…
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शब्दों की सार्थकता
विजयपर्व विजयादशमी की हार्दिक बधाई शुभकामनाएँ ——– शब्द को ऐसे न छोड़ें, कि वह तीर हो जाए । घात अंतस तक करे जो, कि गंभीर हो जाए । तब तक उसे भी तोलिए, हिय सधे तराजू पर, बहे कपोलों पर करुणा, सघन नीर हो जाए। शब्द को ऐसे न छोड़ें, कि वह तीर हो जाए । शब्दों की सार्थकता को, सिद्ध भाव ही करते। व्रण का जो अवलेह बने, पीड़ा वे ही हरते। निष्ठा को निष्ठुरता से, करिए कभी न छलनी, हृदय समाती वाक्-सुधा, मधुर क्षीर हो जाए। शब्द को ऐसे न छोड़ें, कि वह तीर हो जाए । शब्द नहीं सेना आयुध, हार जीत का कारण। अनघ शक्ति संबल…
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सच्चाई स्वीकार करें
गीत मान सभी को प्यारा है पर, झूठे हैं उपमान सभी । क्या मांँगे हम मदद जगत से,बन बैठे अनजान सभी। काँधे जिसके झुके बोझ से, उसका अपना कौन यहांँ । नये दौर की बात निराली, बढ़े मदद को हाथ कहाँ । पीर पराई कहकर अपनी, खोती है पहचान सभी। क्या मांँगे हम मदद जगत से,बन बैठे अनजान सभी। पथ पर बिखरे काँटे फिर भी, कभी न हम पर वार करें। अपनों में ही छिपे पराए, सच्चाई स्वीकार करें। खो देते हैं पलभर में जो, दीन-धर्म ईमान सभी। क्या मांँगे हम मदद जगत से,बन बैठे अनजान सभी। कथनी-करनी में अंतर से, नाते लगते मतलब के। विरले होते संघर्षों में, सदा…
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“द्वार सजाऊँ बंदनवारे”
#गीत शंकर सुवन गणपति आओ,रिद्धि-सिद्धि सह अनुगामी। द्वार सजाऊँ बंदनवारे, दीप प्रज्ज्वलित हो स्वामी। नाद-ताल लय साज सधेंगे। वंदन के स्वर चौमासी ।। अधर-अधर पर जय जयकारा। अंखियांँ कातर नित प्यासी ।। दीन करें मन आर्त्तनाद सुन,नष्ट करो!विपदा कामी। द्वार सजाऊँ बंदनवारे, दीप प्रज्ज्वलित हो स्वामी।। अलि गुन गाए सरस करे प्रिय। मधुरस कलश भरें कलियाँ ।। पीत-वसन ले ध्वजा नारियल। मंदिर तक गातीं सखियांँ ।। गजवदन विनायक की प्रतिमा, पथ पर निकले रथ यात्रा, दर्शन को बढ़े सुनामी। द्वार सजाऊँ बंदनवारे, दीप प्रज्ज्वलित हो स्वामी।। #लता पहन वासंती चूनर, अंग-अंग थिरके नच के । गीत लावणी सहज ऋचाएं, मन भाए कटितट मटके। पहन पीत पट प्रभु गजवदना,शुभकारी अन्तर्यामी ।…
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“दुहराता इतिहास उसी को”
*सजल* समय-समय पर बरखा सावन,और समय से आता पतझड़। नियति बांँचती भाग्य हमारे,सुख-दुख आते हैं उमड़-घुमड़ ।। चूनर दाग न धो पाएगी, हृदय हीन हो रिश्ता-नाता। प्रीति लगन यदि सच है बढ़ती, भले बनाते लोग बतंगड़।। लोक रीति से परे न कोई, नयी-पुरानी सीख समझ लें। सत्य-सनातन बिन कड़ियांँ सब, बिना शीश के लगतीं धड़।। भूले बिसरे गीत हमारे, नयी चेतना को समझाएं। दुहराता इतिहास उसी को, धाक उसी की जो है धाकड़।। महके फागुन में अमराई, कोकिल-काग करें हैं कलरव। मीठी-मीठी वाणी मनहर, झूलें हम डाली पकड़-पकड़।। बादल छौने नभ पर धाएं, काले-भूरे रार मचाएं। गरज उठी घनघोर नाद से, चपला-चमकी नभपर तड़-तड़।। सांँझ सुरमई निशा सुहागन, चातक-नयन हुए…
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लिखे लेखनी जंग
गीत ——— धुंंध-धुंध औ धुंध,प्रलय का पहने बाना । धर्म-कर्म सुविचार,कृत्रिम जाना-पहचाना । लख चौरासी योनि शीर्ष मानव तनधारी । भरे विकट उन्माद, करें दुःखी व्यभिचारी । भोगी तन-मन तंत्र, दीन नैतिकता चादर, अँखियाँ जाती भीग तड़प का दे नजराना । तिल-तिल घटता प्राण, जगा करती कुंठाएं बदली नहीं अनाम, दशा-किस्मत-रेखायें सिहरे तरुवर पात,निशा अलाव बन जागे, घुल जाता जब धैर्य, बुनेगा गीत सयाना । लिखे लेखनी जंग हुए क्यों तंग झरोखे । जीवन के सब रंग दर्द जी रहे अनोखे । टूट चुके हिय बांध, पीड़ा न हृदय समाए, छिड़ा जंग संगीन, चुने ये विकल तराना । ———– डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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“सजल नयन के कोर”
सजल नयन के कोर…….. करो न आहत हृदय हमारा, कदम बढ़ाया अभी-अभी । वही भरोसा बना रहेगा, कलम उठाया अभी-अभी ।। हुए नहीं जो खुद ही अपने, रिश्ते नाते नये-नये । उठीं सदाएं जगत हितों की, हृदय जगाया अभी-अभी ।। भले शिखर तक पहुँच गए हम, तृषा हवस की डुबा रही । क्या खो चुके हम ये न सोचा, विवश बनाया अभी-अभी ।। बढ़ा हौसले वही गिराते, परख सके हैं कुटिल कहाँ । रही सतत दुविधा लाचारी, हृदय लजाया अभी-अभी ।। दाँव सियासी खेलें देखा, चौपड़ बाजी लगी यहाँ । सजल”नयन के कोर बताते, कि क्या गँवाया अभी-अभी।। उठा शीश है सदा जगत में, चुनी सदा ही उचित राहें ।…
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“उमड़ पड़े हिय ज्वार”
गीत जल से है जलनिधि की गरिमा,हिम से है हिमवान । बूंद-बूंद से सागर जिसके, अगणित हैं उपमान । यत्न-रत्न से गर्भित-गर्वित, उमड़ पड़े हिय ज्वार । चरण पखारे हिम शृंग के, जोड़े अनुपम तार । लहरों पर नित चंद्र उतारे,शोभित उर्मिल प्राण । बूंद-बूंद से सागर जिसके,अगणित हैं उपमान । उठती गिरती फेनिल धारा, वक्षस्थल को चीर । चतुर सयाने यात्रा करते, गहरे खींच लकीर । स्वागत में यह विशाल सागर,भाव भरे उन्वान । बूंद-बूंद से सागर जिसके,अगणित हैं उपमान । विकल हुए संवेदित मन को । जहांँ मिलाती चाह । नदियों का संगम ही सागर, सरितराज-उत्साह । लिखा करेंगी सदियों तक ये,प्रेम सरस सहगान । बूंद-बूंद से सागर…
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“नहीं साँच को आंच बावरे”
_गीत नीति रीति का करें समर्थन,मिट जाये टकराव । आपस की कटुता को मेटे, प्रेम समर्पण भाव । विश्व मंच से पाप-पुण्य के, मुद्दे उठे हजार, दिया समर्थन दोषी को यदि,दोषी स्वयं करार। अपनी क्षमता स्वयं आँकिए, बिना शस्त्र भगवान, भरी अदालत सिद्ध न होता,गवाह बिना दबाव। विनाश काले विपरीत बुद्धि, स्वयं डुबाती नाव। ———————- प्रेम समर्पण भाव । पीर न कोई झूठी होती,पाप करे क्यों राज, अपराधों के बोझ तले जब,दबी मनुजता आज। भगवन तेरी दुनिया में ये,जन्में कैसे ? लोग, कुटिल निरंकुश की अपघातें,उनके बीच चुनाव। नर-नारी के सपने रिश्ते; बनते रिसते घाव । ———————- प्रेम समर्पण भाव । विश्व-युद्ध की आशंका है, सुप्त जगाएं बोध। राष्ट्र-हितों में…