चमके भानु प्रताप……
#गीत (आधार छंद सरसी)
प्रात सजाए पूजा थाली,धूप दीप से जाप ।
अक्षत दुर्वा कुंकुम माथे,चमके भानु प्रताप।
सरजू तट के रहवासी जो,अवध पुरी के नाम ।
राम बसे प्रति हृदय जहाँ पर,वृहद साधना धाम ।
मर्यादा पाथेय मिला जो, भाव भरे निष्काम ।
करतल करते बरगद पीपल,हरते मन संताप,
अक्षत दुर्वा कुंकुम माथे,चमके भानु प्रताप। —————-
रूप कंचनी आभा फैले, प्राची का शृंगार ।
सार जगत में प्रेम यहाँ पर,भर दे मन उद्गार ।
साँझ सुहानी लगती प्यारी,प्रिया खड़ी ज्यों द्वार।
अधरों पर नित भाव व्यंजना,लगे सुखद आलाप,
अक्षत दुर्वा कुंकुम माथे,चमके भानु प्रताप। ——————–
मन वाणी सत्कर्म नीतियाँ,मिलती जहाँ सुयोग।
वचनबद्धता रही यथावत ,युग-युग गायें लोग ।
मान नहीं अभिमान ज्ञान से,बढे़ सभी उद्योग ।
रक्षित जिससे मर्यादित है,समुचित क्रियाकलाप,
अक्षत दुर्वा कुंकुम माथे,चमके भानु प्रताप। ———–
लिए संँदेशा कागा बोले,अतिथि देवता रूप ।
भरत वंश की परम्परा ये, सुखदा बड़ी अनूप।
किया वनगमन;सियारमण को,माया लगी न भूप।
गंध लुभाती अँगना द्वारे,हल्दी,चंदन छाप।
अक्षत दुर्वा कुंकुम माथे,चमके भानु प्रताप। ———–
अगरु धूम से महके तन-मन,पढ़कर मानस छंद।
धन्य धरा पर अनुपम रचना,ताल भरें लय बंद।
सरसी-सरसी सरस सरोवर, स्नात मिटे सब द्वंद्व ।
कर्म मनुजता जहाँ समायी,तनिक न मन में पाप ।
अक्षत दुर्वा कुंकुम माथे,चमके भानु प्रताप। ———–
—-+———-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी