“गुरु बिन कौन सँवारे”
#गीत
जल में थल में धरा गगन में,गुरु बिन कौन सँवारे ।
मंत्र मुदित मनभावन मंगल, सबको ईश उबारे ।
मरकत मणिमय निहित सरोवर,
किरण प्रभा छवि गुंफित ।
सुखद सलोनी आभा अविरल,
पात-पात पर टंकित।
निखर उठा है पंकिल तन ये,मुकुलित नैन निहारे ।
जल में थल में धरा गगन में,गुरु बिन कौन सँवारे ।
मीन उलझती रही निरापद,
शैवालों में खेले ।
सरसिज काया मदमाती यों,
अगणित बाधा झेले।
सतह-सतह पर कुटिल मछेरे,बगुले हिय के कारे ।
जल में थल में धरा गगन में,गुरु बिन कौन सँवारे ।
लता सीख देती ये कणिका,
मन को करें न दूषित।
धर्म नीति भावों की सरिता,
निश्चित होगी भूषित ।
नया सबेरा फिर-फिर आये, कर्मठ मंत्र उचारे ।
जल में थल में धरा गगन में,गुरु बिन कौन सँवारे ।
**********डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी