“पावस झरे”
#गीत
बरखा सावन भाये प्रियतम
साँसों को महका रही ।
लगा डिठौना कारी बदरी
पग घूँघर ठुमका रही ।
#गीत
बढ़ी तृषा हिय हुलसित गाए,
होनी हो अनहद भले ।
करें दिग्भ्रमित घाट-पाट ये,
अनहोनी हर बार टले ।
मौसम की मनुहार करे मन
कँगना जो खनका रही ।
जादू टोना काम न आये ,
मन मयूर छन-छन करे ,
शाख-शाख पर कूक सुहाए
रिमझिम जब पावस झरे ।
नृत्य सुखद यह भाव-भंगिमा ,
सजनी कटि मटका रही
——— डॉ प्रेमलता त्रिपाठी