“कला खिले मधुराकर की”
#गीत
सजा रही हूँ स्वप्न चंद्र पर, राग रागिनी अंतर की ।
अमा लिखे क्यों श्वेतांबर पर,कला खिले मधुराकर की,
उड़ जाते उस छोर सुहाने, सपने सच करने दो बस,
संग सखा बन घूमे जैसे,यह संगिनि मौन सफर की ।
सरस चाँदनी भरती धरती,ज्यों बदरी बीच निहारे ।
आखर ढाई उलट पलटकर,पृष्ठ लिखे बिखरे तारे ।
टिम-टिम जुगनू दादुर झींगुर,कटी निशा नभ प्रातर की,
अमा लिखे क्यों श्वेतांबर पर,कला खिले मधुराकर की ।
गाए कैसे बनजारा मन, नहीं सुलाए जब लोरी ।
श्वांस भरे तन केवल जीवन,भव बंधन की यह डोरी ।
साँझ सकारे नयन हमारे, अभिनव सजते आखर की,
अमा लिखे क्यों श्वेतांबर पर,कला खिले मधुराकर की।
उड़ जाते उस छोर सुहाने,सपने सच करने दो बस,
संग सखा बन घूमे जैसे,यह संगिनि मौन सफर की ।
————–डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी