‘राज इसका कहें आज किससे’
#गीत
प्रीति सरगम लुभाती बहुत है।
मृत्यु अंतस दुखाती बहुत है।
राज इसका कहें आज किससे,
बन ये’ परिहास जाती बहुत है। ———
छद्म दुनिया करे तो जले मन ।
खोट मन की छुपाता रहे तन ।
धर्म के काज में भी कुटिलता,
नित तृष्णा के छाये रहे घन ।
घूमती स्वार्थ घाती बहुत है ।
बन ये’ परिहास जाती बहुत है। ———
प्राण पिंजर बँधा जानते जो।
हाथ मलते गया मानते जो ।
शाम ढलती कहें उम्र की हम,
चादरें यों सदा तानते जो ।
साँझ ऐसी रुलाती बहुत है ।
बन ये’ परिहास जाती बहुत है। ———
है न सावन झड़ी फागुनी ये।
रंग बरसा गयी जामुनी ये।
लोचनों में पली ये सहेली,
छंद में जो ढली अर्जुनी ये ।
तप्त मन को सुहाती बहुत है
बन ये’ परिहास जाती बहुत है। ———
—– —-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी जी
अर्जुनी
[सं-स्त्री.] 1. हिमालय से निकलने वाली एक नदी; करतोया 2. सफ़ेद गाय 3. (पुराण) वाणासुर की पुत्री जिसका विवाह कृष्ण के पोते अनिरुद्ध के साथ हुआ था।