गूँज कहीं निर्जन कानन से
#गीत
मर्म रीते कटु भाव कब तक जहाँ वेदना सोती है ।
खार लिखे वह हरपल जीवन,जहाँ चेतना सोती है ।
साथ खड़े या चलने वाले
जो केवल परछाई हो।
रोती हँसती पीड़ा हरती,
या अपनी तनहाई हो।
गूँज कहीं निर्जन कानन से,लौट सदा आती ध्वनि सी,
कर्मों की प्रतिध्वनि भी रोती, जहाँ सर्जना सोती है ।
निभा सके हम रिश्ते-नाते,
सपन सँजोए नयन सुभग।
लाख सताये दुनियादारी,
अर्पण वाले भाव अलग ।
भूली बिसरी यादें मन को, ले जातीं गहराई में,
चाहत अपनों की पाने को,जहाँ अर्चना सोती है ।
अनगिन मोती ‘लता’ बिछाए,
राह अकेली प्रीतम बिन ।
उमड़ पड़े ये सरित लहर सी,
रुके न पलकों में पलछिन ।
पीड़ा का इतिहास पुराना,मर्म सही किसने समझा,
छद्म वेश में बेबस करती,जहाँ साधना सोती है ।
————————डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी