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बँधी डोर से डोर
बँधी डोर से डोर -गीत—————— कल आज हमारे हाथों में बँधी डोर से डोर हमारे —- हाथों में । जीवन नैया खेवन वाले । जड़वत हैं क्यों चेतन वाले । मना रहे त्योहार अगर तो मिली साँझ से भोर हमारे — हाथों में । सोच लिखूँ अफसाने नगमें । दौड़ रही श्वांसें रग-रग में । बेतार जुड़े हम सब देखें, धड़के हिय पुरजोर हमारे — हाथों में । ‘लता’ प्रेम में घुल कजरारी । राह मुझे देती उजियारी । पर्व ईद या जले होलिका, धूप – छाँव हर कोर हमारे हाथों में । ——–डॉ प्रेमलता त्रिपाठी
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गूँज कहीं निर्जन कानन से
#गीत मर्म रीते कटु भाव कब तक जहाँ वेदना सोती है । खार लिखे वह हरपल जीवन,जहाँ चेतना सोती है । साथ खड़े या चलने वाले जो केवल परछाई हो। रोती हँसती पीड़ा हरती, या अपनी तनहाई हो। गूँज कहीं निर्जन कानन से,लौट सदा आती ध्वनि सी, कर्मों की प्रतिध्वनि भी रोती, जहाँ सर्जना सोती है । निभा सके हम रिश्ते-नाते, सपन सँजोए नयन सुभग। लाख सताये दुनियादारी, अर्पण वाले भाव अलग । भूली बिसरी यादें मन को, ले जातीं गहराई में, चाहत अपनों की पाने को,जहाँ अर्चना सोती है । अनगिन मोती ‘लता’ बिछाए, राह अकेली प्रीतम बिन । उमड़ पड़े ये सरित लहर सी, रुके न पलकों में…