“चीर झरे तन पर सदरी”
आधार छंद- लावणी
#गीत
स्नेह सिक्त भावों से भीगे,तन-मन अंतर देखें हैं ।
माँ की कृपा सिंधु से उभरे,मुक्ता अक्षर देखें हैं ।
*वाणी को जो तीर बनाते,
धार बहुत इनमें होती ।
खिले वाटिका फूल जहाँ पर,
आखर-आखर हों मोती ।
छुपे हुए सर्पो के दल-बल,दीन-धर्म को जो खोकर,
घायल करते कृत्य कथन से,डसते विषधर देखेहैं।
*कंपित रग-रग शीत लहर से,
ठिठुरे हारे जन पथ पर ।
बजे दंत हैं दुंदुभि जैसे,
रवि वर आओ तुम रथ पर।
पतझर भी मधुमासी भाये,छँट जाये मोह पाश जो,
मृत्यु आवरण धुंध कहर से,घिरते अक्सर देखें हैं।
*हरित क्रांति से झूमें सरसों,
अलसी निखरे खेत जहाँ ।
चले नहीं अब हवा पश्चिमी,
उड़ते मरुथल रेत जहाँ ।
शस्य श्यामला सुखदा संसृति,महकेगी सुंदर वादी,
धन्य धान्य से पूर्ण धरा पर,हंँसते हलधर देखें हैं ।
*मंत्रपूत हो स्वार्थ रहित हो
सकल सिद्धियों से साधन ।
क्षोभ व्याप्त क्यों गलियाँ सूनी,
दुःखी समाज क्यों जीवन ,
जग जायें यदि युवा देश हित,मिटे क्रूरता दंश सभी,
रक्त रक्त हाहाकार मचा, जीवन बदतर देखें हैं ।
‘लता’ छलकतीं आँखें अपनी,
देख गरीबी की बदरी ।
सह लेते मौसम की घातें,
चीर झरे तन पर सदरी ।
स्नेह धूप की महिमा गायें,सुंदर सार्थक मंथन हो,
चुप्पी साधे रहें हृदय के, शुष्क समंदर देखें हैं ।
———-डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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