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“नील गगन है मौन हुआ”
गीतिका — रंग बिखेरे इंद्रधनुष नभ,सरस लगा तन मन को । सप्त रंग ये अभ्र निकष पर,सजा रहा उपवन को । जहाँ भरे मृग-दाव कुलाँचे, छौने बादल बनकर, नील गगन है मौन हुआ खुद,देखे मुग्ध सदन को । विमल प्रीत ये धरा गगन की, मधुरस कलश भरी जो, मिलन यही नव क्षितिज उकेरे,लुभा रही जन-जन को । बुला रही सावन को पगली,बरखा दे खुशहाली, खेत-खेत खलियान सजाये,माँग रही अनधन को । प्रेम शांति का नारा लेकर,प्रतिपल हो सुखदायक, सुखद सबेरा फिर फिर आये,मिटा सकल उलझन को । ********************डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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कजरी
#गीत (कजरी ) सखी महक उठी ज्यों माटी तलाई में, चलो अगुआई में धान की रोपाई में ना — धान की रोपाई में ना — बहे पुरवा बयार चहुँ सावनी फुहार, भीगे अँचरा हमार तनी छतरी सँभार । कहे कँगन कलाई में — धान की रोपाई में ना — बीज बेरन बनाय, देत पाँतन बिछाय, धानी चूनर सुहाय,मन मन ही लुभाय । लागी गुइयाँ निराई में – धान की रोपाई में ना — कुहुक कोयली बान लगे सरस निदान, देश हित में जवान,पिया सजग किसान । औ परदेसी कमाई में धान की रोपाई में ना — ————————-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी