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साधना के पथ बहुत हैं !
गीतिका सत्य सार्थक सर्वदा ही पर प्रमुखता है कहाँ ? नित्य हों अपवाद रिश्तों में निकटता है कहाँ ? है सरल संकल्प लेना,हो निभाना मानिए, साधना के पथ बहुत है पर सहजता है कहाँ ? कृत्य की अनदेखियाँ,हो रहीं व्यापक सभी लूटते यूँ अस्मिता जो,फिर मनुजता है कहाँ ? पुस्तकों तक जो सिमटती,लेखनी का मान क्या, दृश्य हैं पाठक नहीं वे, वह विकलता है कहाँ ? लेखनी शृंगार लिखती,मान दे उपमान को, शुद्धता मन की नहीं तो,दृग उरझता है कहाँ ? कवि हृदय में गीत हो संगीत अनहद साधना, ताल-लय-गति भाव बोधक,हिय समझता है कहाँ । प्रेम का उद्गार सच्चा, यदि लगन सच्ची रहे, खोज लेती हर विधा को,मन सँभलता…