-
सुरमई साँझ
आधार छंद माधव मालती — गीतिका —– सुरमयी ये साँझ गाती गुनगुनाती जा रही है । ये शरद की चाँदनी मन को लुभाती जा रही है । टिमटिमाती तारिकाएँ ,झूमती है पाँखियाँ भी, रागिनी सरगम भरे ये नभ सजाती जा रही है । ये अमावस पूर्णिमा की है कथा सदियों पुरानी, मोहनी ये वक्त की पहचान कराती जा रही है । दिन पुराने बीत जाते कट रही रातें सभी यूँ, ये मिलन की या कभी विरहन बनाती जा रही है । प्रेम का गर हो सहारा,हो नहीं जीवन अकेला, नित सुवासित हर सुबह आ मुस्कराती जा रही है । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी