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वर्ष बीस बीस
छंद विधाता मापनी- 1222,1222,1222,1222 गीतिका —– दुखी है लेखनी अपनी,कहाँ खोया हमारा कल । किया शृंगार कब तुमने,न यादों में उभरता पल । मिटा हस्ती रहा अपनी, कि दुर्दिन घातकी बनकर, नजर किसकी लगी हमको,गया यह वर्ष करता छल । उठाती टीस है जैसे, दरों दीवार ये आँगन, मिटेगी वेदना निश्चित,हवायें कह रहीं चंचल । धरा ये रत्न गर्भा है, पुनीता है बडी़ मुग्धा, तुम्हें सौगंध इसकी है,सुनो हलधर तुम्हीं संबल । मुकुट मण्डित हिमालय से,भरत भू संपदा अपनी, कहें; ये आँसुओं से अब,न करना तुम तरल आँचल । चहकती प्रात किरणों से,झरोखे खोल कर देखो, सरोवर फिर सुवासित हों,भरे मुस्कान ये शतदल । मृदुल मन प्रेम रस घोलो, उठे…
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सुरमई साँझ
आधार छंद माधव मालती — गीतिका —– सुरमयी ये साँझ गाती गुनगुनाती जा रही है । ये शरद की चाँदनी मन को लुभाती जा रही है । टिमटिमाती तारिकाएँ ,झूमती है पाँखियाँ भी, रागिनी सरगम भरे ये नभ सजाती जा रही है । ये अमावस पूर्णिमा की है कथा सदियों पुरानी, मोहनी ये वक्त की पहचान कराती जा रही है । दिन पुराने बीत जाते कट रही रातें सभी यूँ, ये मिलन की या कभी विरहन बनाती जा रही है । प्रेम का गर हो सहारा,हो नहीं जीवन अकेला, नित सुवासित हर सुबह आ मुस्कराती जा रही है । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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“आकाश दो”
छंद- वाचिक स्रग्विणी विधान- 212 212 212 212 देखकर जो तुम्हें जी लिया है सदा । आचमन यों सुधा का किया है सदा । पंख खोले हवा में यूँ आकाश दो, स्वाँस गाये जहाँ बन प्रिया है सदा । प्रीत निर्मल बिखेरे कली से सुमन, अलि मगन सोम रस में जिया है सदा । वर्तिका के बिना दीप जलता नहीं, पर कहें जल रहा यों दिया है सदा । वात कंपित शिखा वत न बुझना मुझे, ये हवायें जलातीं हिया है सदा । प्रीति मीरा बनी जो अमर हो गयी, प्रेम जिसने गरल ही पिया है सदा । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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मजदूर दिवस
गीतिका —#मजदूरदिवसपरसमर्पित आधार छंद सार– 16,12पर यति अंत दो गुरु शक्ति चेतना संकल्पित ये,जीवन अर्थ धरा है । स्थूल द्रव्य या पंचतत्व घन,कानन अर्थ धरा है। शैत्य ताप ऋतु परिवर्तन की,कमठपीठ ये धारक, रात्रिदिवस से सज्जित उर्जित,साधन अर्थ धरा है । राग रंग संवर्धित जिसमें,श्रांत क्लांत हित संबल, अर्पण सुधा समाहित जीवन,यापन अर्थ धरा है । धीर वीर ये विश्व सखावत ,बना हेतुकी रक्षक, बहे जहाँ सागर संगम नद,पावन अर्थ धरा है । नेम धर्म से शुभ अरुणोदय,गुंजित नंदन वंदन , प्रेम प्रकृति से द्विगुणित सुखदा,सावन अर्थ धरा है डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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सूर्य तो उगा सखे
प्रदत्त छंद-चामर (वर्णिक) 21,21,21,21,21,21,21,2 समान्त: अगापदान्त: सखे गीतिका हार मानना न मौत को गले लगा सखे । भाग्य वान हो अहो सुभोर को जगा सखे । है अतीव वेदना विराग क्षोभ मानिए , दे रहा अकाल ये कराल क्यों दगा सखे । दौर आ गया समक्ष साहसी बने स्वयं, भेद भाव आपसी दुराव को भगा सखे । दूरियाँ भले रहें न बाँटिए समाज को, एक देश एक राष्ट्र गीत मंत्र गा सखे । एकता बनी रहे पुनीत राष्ट्र भावना, भाव दीप्त यों रहे भले न हो सगा सखे । द्वंद्व तो अनेक हैं मिटा सके न नेह को भूल ये सभी गिले खुशी सभी मँगा सखे । प्रेम की प्रगाढ़ता…
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अमा की रात झंझावात है —
आधार छंद – ‘ आनंदवर्धक छंद ‘ मापनी – 2122 2122 212 समांत – ‘ आत ‘ , पदांत – ‘ है ‘ . ***************************** गीतिका:- हो उठी जागृत सुहानी रात है। मौन तारे भी करें जब बात है । टिमटिमाते जुगनुओं की पंक्तियां, है अमा की रात झंझावात है । दर्द रिश्तों में जहाँ मिलता रहा, प्रीति खाती नित वहीं तब मात है। पास आकर भी नहीं मंजिल मिली, यह समय का जानिए अप घात है । सत्य की राहें अडिग हैं मानिए , बात इतनी जो सभी को ज्ञात है । है प्रतीक्षा की घड़ी नाजुक बड़ी, रात्रि का अवसान देता प्रात है । गुनगुनाये शून्य भी यह…
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सींच दे आरोह को
छंद गीतिका मापनी : 2122,2122,2122,212 मुक्तक—- जी रहा हर व्यक्ति क्यों कर,दर्द लेकर द्रोह को । कर्म सुंदर साथ हो तू, छोड़ माया मोह को । सारथी बन कर मिलेगें,श्याम सुंदर आज भी, शोध जागृत कर सयाने, मूल में संदोह को । गंध चंदन भाव अर्पण, की जरूरत हैं यहाँ, दो महकने नित्य जीवन,खो न देना छोह को । दुख निराशा की घडी़ में,भोर बन कर जागना, एक दूजे के लिए बन,राह संबल टोह को । दर्द को कह अलविदा तू,मीत मेरे इस समय, प्रेम की जो बेल उसको,सींच दे आरोह को । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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हिना के रंग
गीतिका— मापनी-1222 1222 1222 1222 समांत – आमपदांत – लिक्खा है हिना के रंग में हमने तुम्हारा नाम रक्खा है । छिपाकर प्रीत का आखर उसे बेनाम रक्खा है । कहीं कोई न मुझसे छीन ले यह प्रेम का बंधन, सजाया है उसे मन में भला अंजाम रक्खा है । मिलन तुमसे न चाहूँ मैं रही अरदास इतनी सी, तुम्ही में खो सकूँ खुद को सुबह से शाम रक्खा है । कली का मान रखना तुम कहीं विश्वास मत खोना, मिटा दो दाग जीवन का जिसे बदनाम रक्खा है । कि रिश्ते क्यों रहें रिसते मधुर पावन बने नाता, महकती है हिना जैसे कि मीरा श्याम रक्खा है । डॉ.प्रेमलति…
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समय न गँवायें
छंद-द्विगुणित- गंग (सम मात्रिक) शिल्प विधान- मात्रिक भार =9,9 =18 गीतिका— पीडा़ जगायें, न दीन सतायें । करुणा नयन ये,आँसू बहायें । साहस भरें दम,पूजा फलेगी, पग-पग सदा हम,मिलकर बढा़यें । घातक गरीबी,व्याकुल करे मन, विपदा कटेगी,अजान मिटायें । आयी चीन से,आफत करोंना करनी सुरक्षा,समय न गँवायें । कानून अपना,अंधा न बहरा, असत्य बुराई, न शीश उठायें । मुस्कान अपनी,यूँ खो रही क्यों, हँसती बहारें, फिर द्वार आयें । अंतस सँवारे,हो प्रेम पुष्पित, क्यों पाप धोने, गंगा नहायें । डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
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जीत घुटने टेक दे
विधा:-गीतिका आधार छंद:-गीतिका(मापनीयुक्त मात्रिक) विधान:-कुल 26 मात्राएँ 14,12 पर यति मापनी:-2122 2122 2122 212 सामान्त:-आना पदांत:-चाहिए मीत सच्चा मन मिले वह,पल सुहाना चाहिए, शुद्ध अपनी धारणा हो, पथ बनाना चाहिए । प्राण घाती स्वार्थ तजिए,मिल सके खुशियाँ तभी, एक दूजे से मिले वह, प्यार पाना चाहिए। जीत घुटने टेक दे उस, पीर का भी अंत हो, हार के बदले विवशता, को मिटाना चाहिए। अंत कर दे जो तमस का,हो उजाला हर सुबह, एक दीपक ज्ञान का हो, वह जलाना चाहिए । मीत जो बनते रुकावट, नासमझ हैं वे सदा, हो रहे गुमराह उनको, राह दिखाना चाहिए । —————डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी