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‘अनजान पथिक को ‘
गीत साँझ नवेली निशा सुहागन,मन विरही का भरमाया । साँसों का अनुपम बंधन,जन्म-मरण तक ये काया । पंख लगे घन लौट रहे ज्यों, थके दिवस के हों प्यारे। चंद्र कौमुदी रजनी नभ-तल, शून्य भरे नभ के तारे। विरह-प्रीति अनजान पथिक को,कैसे हिय में ठहराया। साँसों का अनुपम बंधन, जन्म-मरण तक ये काया । घोल रही हैं चकमक लाली, स्वतःसाँवरी सँवरी सी । चँवर डुलाए पवन वेग से फाग उड़ाती बदरी सी । रंग सभी,बेरंग न जीवन,जिसको कहते हैं माया । साँसों का अनुपम बंधन,जन्म-मरण तक ये काया । भाग्य बदलते कर्म हमारे चले साथ दो पग मेरे । भटक रहे जो दुविधाओं में, नियति नटी जब पग फेरे। राह मिलेगी…
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“जय भारत”
“जय भारत” —– रहे झूमता ये तिरंगा हमारा। गगन चूमता ये चमकता सितारा।। सदा मान है ये शान हमारी । दिलों में विराजे आन हमारी । आजाद भारत की ये निशानी, अमर ये रहे वतन का सहारा । रहे झूमता ये तिरंगा हमारा——- छिपी जहाँ शहीदों की शहादत । हिंद की दौलत अपनी अमानत । चंचल हवायें सदा गीत गायें, विश्व पटल पर सजे ये नजारा रहे झूमता ये तिरंगा हमारा——- लिए वीर हाथों फड़कती भुजाएँ। उमगती धड़कन गाती ऋचाएँ । अनुगूँज लेकर जयहिंद भारत, कदम से कदम ; चमन का दुलारा । रहे झूमता ये तिरंगा हमारा——- डॉ0 प्रेमलता त्रिपाठी
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‘लौंग सुपारी के बीड़ा लगा के’
गीत —– रंग बसंती बिखेरे संँवरिया —- धूप छाँव है कहुँ घेरे बदरिया । फगुनी बयरिया सजन मन भावै। सुध-बुध छीनै ये जिया तड़पावै । सतरंगी आभा किरण बगरा के, छल-छल छलके है काँधे गगरिया, धूप छाँव है कहुँ घेरे बदरिया ——-। अँगना में बोलै सुगन हरजाई । चँवर डुलाती जो गयी तरुणाई । लौंग सुपारी के बीड़ा लगा के, यौवन की आई खड़ी दुपहरिया धूप छाँव है कहुँ घेरे बदरिया ——–। दर्पण देखत शृंगार हुलसाये । रंग पिया मोहे चटक मनभाये । कटि बलखावे बावरो पग नूपुर, चैन कहाँ पावै अनहद गुजरिया । धूप छाँव है कहुँ घेरे बदरिया —–। ———-डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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“कल्प रहे कल्पांत नहीं”
#गीत मधुरस भीनी बगिया अपनी,कल्प रहे कल्पांत नहीं । सुखदा संसृति अपनी प्रतिपल,करती जो दिग्भ्रांत नहीं । *** सरस लगे ये दिगदिगंत देखन वाले नैन अलग । लोभी मधुकर से यदि पूछें, गुनगुन करते बैन अलग । खोकर जीवै वही साधना , इसके कुछ उपरांत नहीं । सुखदा संसृति अपनी प्रतिपल,करती जो दिग्भ्रांत नहीं । *** नित्य रचे जो द्वार रँगोली, स्वागत में चौखट हो । कुम कुम हल्दी अक्षत ले हँसकर खुलता जो पट हो । तुलसी के बिरवा ! चुनमुन से,अँगना चहके शांत नहीं सुखदा संसृति अपनी प्रतिपल,करती जो दिग्भ्रांत नहीं । *** छंद रचे नव-नव विधान से, गीत नेक रचना हमको । छुपे दिव्य मन भाव सरसता,…
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“कल्प रहे कल्पांत नहीं”
#गीत मधुरस भीनी बगिया ये, कल्प रहे कल्पांत नहीं । सुखदा संसृति अपनी प्रतिपल,करती जो दिग्भ्रांत नहीं । *** सरस लगे ये दिगदिगंत देखन वाले नैन अलग । लोभी मधुकर से यदि पूछें, गुनगुन करते बैन अलग । खोकर जीवै वही साधना , इसके कुछ उपरांत नहीं । सुखदा संसृति अपनी प्रतिपल,करती जो दिग्भ्रांत नहीं । *** नित्य रचे जो द्वार रँगोली, स्वागत में चौखट हो । कुम कुम हल्दी अक्षत ले हँसकर खुलता जो पट हो । तुलसी के बिरवा ! चुनमुन से,अँगना चहके शांत नहीं सुखदा संसृति अपनी प्रतिपल,करती जो दिग्भ्रांत नहीं । *** छंद रचे नव-नव विधान से, गीत नेक रचना हमको । छुपे दिव्य मन भाव…
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जस नाविक के तीर
#गीत अंतस बींधे भेद न जाने,जस नाविक के तीर । रीत जगत की मीत अमानी,होवै मना अधीर । डोर बँधी अथ नाव सँभाले, पाल तने मस्तूल । लहर लहर ये विपुला धारा, साथ चले अनुकूल । धारा के विपरीत चलाये, दुविधायें गंभीर । रीत जगत की मीत अमानी,होवै मना अधीर । सगुण चलावै निर्गुण निर्मल, लगी न बुझती आग । रूप धरे ये स्वारथ कल्मष बुद्ध नहीं अनुराग । स्वाद भरे ये रसना न्यारी,जिसमें उठे खमीर । रीत जगत की मीत अमानी,होवै मना अधीर । ज्ञान सदन की खुली किवाड़ें, कहते सकल सुजान । मन की बगिया हरित बनावें, दर्दी हरें गुमान । नीर नयन से ढलके पर हित,हर ले…
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“पाती तुम्हरे आवन की”
#गीत हरियर पाती भेजे सजना,सुगना बाँचे डाली-डाली । पहिरे चुनरी इत-उत डोले,सावन-भादौं की हरियाली । गुडिया खेलत नैहर अँगना लेत बलैया मातु भवनवाँ । सखियन के ढिग बैठ मनाऊँ बाबुल मोहे भेज गवनवाँ । हरी लाल पीली मिल गावैं,भरी कलाई चुडियन वाली । पहिरे चुनरी इत-उत डोले, सावन-भादौं की हरियाली । हरी-भरी अपनी अँगनाई, पिक-कागन से बगिया चहके । बदरा बिजुरी सगर लुभावन, कदली, बबूल, नीमौ महके । बूँदन हर्षित धरा नहायी,बगिया गमके जिनसे आली । पहिरे चुनरी इत-उत डोले, सावन-भादौं की हरियाली । पाती तुम्हरे आवन की प्रीति बढावै हरित डगरिया । श्वेत अश्व पर वल्गा थामें, पगडी़ बाँधे चला सँवरिया । नयन सजाये सपन बटोही,महिमा जाकी है छविशाली…
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पावस “गीत”
#गीत ( छंद-सार) बरस उठी कजरारी बदरी,सुभग सलोनी अँगना। बाट निहारे साँझ सकारे, बैठि झरोखे सजना । सरस मधुर दिन रैन सताये, संग सखा बिन झूले । रास न आवे मगन समीरण , हौले मन को छूले । देख सखी छवि वारी जाये,श्याम पिया के रचना । बरस उठी कजरारी बदरी,सुभग सलोनी अँगना । बिजुरी विरहन तड़प उठी जब, नैना दो चमकाये । लगे साँवरी अंग तरंगित, सुंदर कटि बलखाये । गगन खींचती रेख समाये, पल में जैसे सपना । बरस उठी कजरारी बदरी,सुभग सलोनी अँगना । कठिन लगे यों जलबिन जीवन, नभ-थल तनिक न भाये । गौर वर्ण से कारी होकर, केश घना लहराये । लता प्रेम की श्याम…
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“अनचाहे कुछ अनुबंधन”
#गीत सागर सम्मत रत्न समेटे,मन में भी गहराई है । अनदेखी अपनों से होती,रोती तब तनहाई है। मृगमरीचिका जीव बढा़ए, अर्थ सहित करिए मंथन । जोगन काया भोग रही है, अनचाहे कुछ अनुबंधन । साँस हिया में हलचल करती,चार दिवस पहुनाई है । अनदेखी अपनों से होती,रोती तब तनहाई है । रिश्ते जोडे़ नये पुराने , नहीं लगे पलछिन दिलकश । साथ चले कब चंद कदम ये, उलझन करती है परवश। लगा कहकहे हँसती मद में,कैसी ये तरुणाई। अनदेखी अपनों से होती,रोती तब तनहाई है। दर्द दिलों की बाँट सकेंगे, समय कसौटी पर तुलकर । रंगों की विविधा है जीवन जीते हैं हम जब घुलकर । “लता” प्रेम की खिले…
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“नील गगन है मौन हुआ”
गीतिका — रंग बिखेरे इंद्रधनुष नभ,सरस लगा तन मन को । सप्त रंग ये अभ्र निकष पर,सजा रहा उपवन को । जहाँ भरे मृग-दाव कुलाँचे, छौने बादल बनकर, नील गगन है मौन हुआ खुद,देखे मुग्ध सदन को । विमल प्रीत ये धरा गगन की, मधुरस कलश भरी जो, मिलन यही नव क्षितिज उकेरे,लुभा रही जन-जन को । बुला रही सावन को पगली,बरखा दे खुशहाली, खेत-खेत खलियान सजाये,माँग रही अनधन को । प्रेम शांति का नारा लेकर,प्रतिपल हो सुखदायक, सुखद सबेरा फिर फिर आये,मिटा सकल उलझन को । ********************डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी