जस नाविक के तीर
#गीत
अंतस बींधे भेद न जाने,जस नाविक के तीर ।
रीत जगत की मीत अमानी,होवै मना अधीर ।
डोर बँधी अथ नाव सँभाले,
पाल तने मस्तूल ।
लहर लहर ये विपुला धारा,
साथ चले अनुकूल ।
धारा के विपरीत चलाये, दुविधायें गंभीर ।
रीत जगत की मीत अमानी,होवै मना अधीर ।
सगुण चलावै निर्गुण निर्मल,
लगी न बुझती आग ।
रूप धरे ये स्वारथ कल्मष
बुद्ध नहीं अनुराग ।
स्वाद भरे ये रसना न्यारी,जिसमें उठे खमीर ।
रीत जगत की मीत अमानी,होवै मना अधीर ।
ज्ञान सदन की खुली किवाड़ें,
कहते सकल सुजान ।
मन की बगिया हरित बनावें,
दर्दी हरें गुमान ।
नीर नयन से ढलके पर हित,हर ले मन के पीर ।
रीत जगत की मीत अमानी, होवै मना अधीर ।
—–++++++++++डॉ प्रेमलता त्रिपाठी