नयन से ढही है —-
गीतिका –
मापनी – 2122 2122 122
समांत – अही <> पदांत – है
पीर आँसू बन नयन से ढही है ।
अंग यह जीवन मरण तक रही है।
सत्य निश्चल है मही पर सदा से ,
गाँव बसता जो असत का नही है।
स्वप्न खिलते हैं उसी के धरा पर,
जो मिटाकर अंध बढ़ता सही है।
कर्म पावन जो अनागत सजाये,
चैन से सुख नींद सोया वही है ।
ज्वार उठते प्रेम करुणा जहाँ पर,
प्रीति नित मकरंद बनकर बही है।
डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी