
“होली” 2025………
“होली” 2025……
#गीत
प्रकृति-वधूटी आयी अँगना,मंगल गीत सुनाए ।
लाज भरी निरखे कजरारी,हिय की तृषा बुझाए ।
नील गगन से बगरी आभा,सरल मिलन की बेला,
सुखद आगमन मदन-कंत का,लगा मनोहर मेला ।
नगर-सगर में खुशियाँ छायीं,उपवन पुष्प सजाए,
मदन बाण से हुए सुवासित, भ्रमर भ्रामरी गाए ।
प्रकृति-वधूटी आयी अँगना,मंगल गीत सुनाए ।
तरु-पत – झारे पुनः सँवारे,सजी धरा ज्यों दुल्हन,
पहन चली नकबेसर तरुणी, ऋतुराजा से बन्धन ।
ठगे खड़े जो विकल बटोही, तन-मन को उरझाए,
मोह रही है स्वांग रचाए,पथ को जो बिसराए ।
प्रकृति-वधूटी आयी अँगना,मंगल गीत सुनाए ।
नवल पाँखुरी डाली-डाली,फुनगी बाँधे मन को,
तरुवर शाखा झूमें विहरे,लखे मयूरी तन को ।
केका से है कूक निराली, पुलक उठे मन भाए,
कुंज-कुंज के काग कुँवारे,कोकिल लगन लगाए ।
प्रकृति-वधूटी आयी अँगना,मंगल गीत सुनाए।
सँवर रही है धरा – धर्मिणी, पीत वसन से कंचन,
शीत चली अनुमानित पीहर,रति अब करती मंचन ।
पवन दुलारे अंग-अंग को, सिहर – सिहर तन जाए,
लता-प्रेम से विलसित अंचल,शोभित मन मदमाए ।
प्रकृति-वधूटी आयी अँगना,मंगल गीत सुनाए ।
लाज भरी निरखे कजरारी,हिय की तृषा बुझाए ।
——————–डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
