“विश्व खडा़ निस्पंद”
गीतिका
जली शलाका रात-दिन,मचे जहाँ नित द्वंद।
कुटिल निरंकुश आग से,मत खेलें स्वच्छंद ।।
विकट सदी की आपदा,हिला रही है चूल,
ऐसी आँधी है चली, विश्व खडा़ निस्पंद ।।
अंतस जलती आग से,मत बनिए अनजान,
सुप्त नहीं ज्वालामुखी,मौत लिए यह खंद ।।
दान भोग भव प्रीति से,मिट जायें सब भेद,
बुनिए गुनिए आपसी, संयम लगे न फंद ।।
प्रेम शक्ति ही सार है,गहिकर रखिए छोर,
जीवन गति लय ताल में,बना रहे यह छंद।।
—————डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी