साधना के पथ बहुत हैं !
गीतिका
सत्य सार्थक सर्वदा ही पर प्रमुखता है कहाँ ?
नित्य हों अपवाद रिश्तों में निकटता है कहाँ ?
है सरल संकल्प लेना,हो निभाना मानिए,
साधना के पथ बहुत है पर सहजता है कहाँ ?
कृत्य की अनदेखियाँ,हो रहीं व्यापक सभी
लूटते यूँ अस्मिता जो,फिर मनुजता है कहाँ ?
पुस्तकों तक जो सिमटती,लेखनी का मान क्या,
दृश्य हैं पाठक नहीं वे, वह विकलता है कहाँ ?
लेखनी शृंगार लिखती,मान दे उपमान को,
शुद्धता मन की नहीं तो,दृग उरझता है कहाँ ?
कवि हृदय में गीत हो संगीत अनहद साधना,
ताल-लय-गति भाव बोधक,हिय समझता है कहाँ ।
प्रेम का उद्गार सच्चा, यदि लगन सच्ची रहे,
खोज लेती हर विधा को,मन सँभलता है कहाँ ?
—————————-डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी