सुरमई शाम
छ्न्द – पारिजात
मापनी- 2122 12 12 22
समांत- अर,<> पदांत- आती
गीतिका
सुरमई शाम यूँ निखर जाती ।
चंद्रिका गीत बन बिखर जाती ।
बादलों में छिपा कहीं चंदा,
देख कर दामिनी सिहर जाती ।
दूरियाँ मीत की रुलातीं हैं,
यामिनी प्रीत की ठहर जाती ।
रूठती नींद भी बड़ी वैरन,
जागती रैन यों गुज़र जाती ।
धुंधला चाँद ज्यों नजर आता,
रागिनी प्रेम की सँवर जाती ।
डॉ प्रेमलता त्रिपाठी