मोह गठरिया
गीतिका —– छंद – सरसी
मोह गठरिया छूटे न पिया,तीरथ करूँ हजार ।
मेल न प्रीतम मन से मन का,व्यर्थ करूँ शृंगार ।
तुम्हीं बताओ दाता मेरे,ढूँढ रही दिन रात,
कहाँ मिलोगे राम हमारे,पलक बिछाये द्वार ।
हंस नहीं मैं मानस स्वामी,क्षीर न नीर विवेक,
तृषित नयन है दे दो दर्शन,जाऊँ मैं बलिहार ।
धर्म आड़ ले अर्थ न चाहूँ,रीति नीति के काज,
अर्घ्य न पारण मन्नत अपनी,घृत न पीऊँ उधार ।
प्रेम रंग रस गंध स्पर्श सुख,तनिक करना मान,
ढले जहाँ अर्पण में काया,सुंदर जीवन सार ।
डॉ प्रेमलता त्रिपाठी