“बीड़ा उठाना”
छंद – वाचिक भुजंगप्रयात
मापनी- 122 122 122 122
समान्त – आना, अपदान्त
गीतिका
महकता स्वयं सत्य बीड़ा उठाना ।
मिले कीर्ति मन में नहीं दंभ लाना ।
तपें स्वर्ण बनकर निखरते तभी हम,
तनिक आपदा में नहीं हार जाना।
सुमन हर कली पर सजी ओस मोती,
उठो संग दिनकर तुम्हें पथ सजाना ।
न शीतल हिना हो न चंदन महकता,
महकती मनुजता इसे तुम बनाना ।
सजे कर्म निष्काम होते जहाँ वह,
नहीं अर्थ केवल हमें हो कमाना ।
सजे प्रेम तन-मन कटे सार जीवन,
बँधे बंधनों में हमें वे निभाना ।
डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी