“होगा जो प्रारब्ध हमारा”
छंद सरसी
हँस हँसकर पहना है जिसने, नित काँटों के हार ।
लुटा दिया अनुपम जीवन को, संघर्षो के द्वार ।
सत्य कथा संघर्षोंं की हो,जीवन खुली किताब,
नश्वर काया भरमाती क्यों,करिए शुचि शृंगार ।
होगा जो प्रारब्ध हमारा, नीति कर्म अभियोग,
राजा रंक भिखारी देखा, देखा तंत्र हजार ।
कुटिल कामना लोभी जग के,जहाँ खेलते खेल,
पग-पग जकडे जाल बिछाकर,तृष्णा का संसार ।
हठी भावना राष्ट्र विरोथी, कृत्य खुले जो पृष्ठ,
काल चक्र है मँडराता फिर,उनके शीश सवार ।
प्रेम ग्रंथ के पृष्ठ-पृष्ठ पर, लिखे हुए जो मंत्र,
स्वार्थ रहित हो पुण्य अनागत,उसे करें स्वीकार ।
—————डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी