उलझा अपना देश ——–
उलझा अपना देश——
जीत रहा मनु नभ से भूतल,
यह कैसा उत्थान ।
धंध,फंद नित करता मानव,
करनी से अनजान ।
हाथ पसारे बचपन देखा
हृदय लगे यह शूल,
ईश बसेरा जिसको देता,
हम क्यों जाते भूल,
कर्म भोग से बचना मुश्किल,
इसका भी हो ज्ञान ।
भूख गरीबी ले जो जन्मे,
उनपर सब उपदेश
संकल्पों के ढेर लगे
उलझा अपना देश,
भले बुरे कर्मों का अपने,
करना है भुगतान ।
आपस के मतभेदों का क्या,
तिरसठ हुए छत्तीस,
आगा पीछा भूल गये जो
और न जाने टीस,
खोदी परिखा पाटी किसने
दरवेशों की खान ।
डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी