उपकार इसी तन का
आधार छंद- वा-द्विभक्ती (मापनीयुक्त मात्रिक)
मापनी- 221 1222 221 1222
समान्त- आये
गीतिका —
उपकार इसी तन का हो मान अगर पाये ।
जीवंत सदा रहकर निज कर्म किया जाये ।
अरमान बडे़ मन में हो उच्च शिखर पाना,
कर्तव्य करें बढ़कर पथ-ज्ञान सुधा साये ।
है ज्ञान बडा जग में सौभाग्य मिले प्रतिपल,
संदेश सरस जिसका सम्मान न झुठलाये ।
संकल्प करें पूरा मत व्यर्थ समय करना,
परमार्थ रहे जीवित मतभेद न अपनाये ।
हो प्रेम समय से यदि अभिसार करें उसका,
लाचार हुआ तन-मन शृंगार नहीं भाये ।
——-++——– डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी